Wednesday, May 6, 2020

बच्चे तो बच्चे बाप रे बाप

बन्नों बुआ ने तो ये डिसाइड कर रखा था की कुछ भी हो जाये वो हमें पिताजी से दिन में एक बार ज़रूर डाँट पिटवाएँगी, चाहे हम कुछ शैतानी करें या ना करें. हम बरामदे में चुपचाप(यक़ीन नहीं होता ना आपको पर कभी- कभी ऐसा भी होता था, माँ क़सम! खेल रहे होते तो अपने कमरे से आवाज़ लगाती, “ मन्नू, ज़रा पुष्पा के घर जा और गृहशोभा ले आ और हाँ,आते-आते सिम्मी के घर से पुरानी सरिता भी ले आना. फटाफट जा.” ये तो हद हो गयी, बुआ को दोपहर को भी चैन नहीं है. मैंने पटाक से जवाब दिया, “ मैं नहीं जाता अभी मैं खेल रहा हूँ, शाम को जाऊँगा.” मेरा इतना कहना ही था बुआ ने तुरुप का पत्ता फेंका, "आने दे भाई को तेरी सारी बातें बता दूँगी उनको- फिर पता चलेगा." अब क्या करता, मजबूरी का दूसरा नाम शायद मैं ही था! चप्पल पहनी और निकल गए बुआ का काम करने- जी में तो आ रहा था की ना करे पर कोई चॉस नहीं थी हमारे पास. पुष्पा और सिम्मी के घर से मैगज़ीन लेकर जैसे ही निकले हमारे खुरपाती दिमाग़ की बत्ती जल गई! पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर प्लान बनाया और धीरे- धीरे घर की तरफ़ चल दिए. चुपके से बुआ के कमरे में झांका तो देखा बुआ सो रही है, फिर क्या था हमारा प्रोग्राम शुरू! अब चार- पाँच मैगज़ीन से अगर दो की आहुति दे दी जाए तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा. हमने उठाई कैंची और सुंदर - सुंदर तस्वीरें काटनी शुरू कर दी. अब कितने दिनों से हम अपनी क्राफ़्ट बुक के लिए ये सब ढूँढ रहे थे पर समझ नहीं आ रहा थी की कहाँ से लायें. कभी तीसरा पन्ना,तो कभी दसवाँ - जहां पर अच्छा लगा वहाँ पे कैंची चल दी! गृहशोभा और सरिता के पन्नों की हमने धज्जियाँ ही उड़ा दी थी- पन्नों की ऐसी खूबसूरत जालियाँ बनी की एक बार तो हम भी अपनी कलाकारी देख के चौंक गए! हम जानते थे की हमारी इस मेहनत को कोई हमें इनाम नहीं देगा पर हमने ही अपनी पीठ खुद थपथपा ली. अब कटिंग के बाद ओवर्वेट मैगज़ीन स्लिम हो गयी थीं! दबे पाँव जा कर इन दो को बाक़ी सब के बीच में रख दिया और आकर वापिस अपने खेल कूद में लग गए. शाम को होम्वर्क करके खेलने जा ही रहे थे की बुआ और पिताजी की आवाज़ का कोरस सुनाई दिया- हमारे कदम तो मानो जम गए! रिवर्स गेयर में सीधे पहुँचे बैठक में जहां हमारी धुलाई का प्रोग्राम होने वाला था. “ क्या तू ये गृहशोभा सिम्मी के घर से लाया है ? और ये सरिता किसकी है, पुष्पा की? हमारे मुँह में तो जैसे दही जम गया था, बस हमारी लस्सी बनने की देर थी. धीरे से बोला, तो पिताजी गुराए, “ खाना नहीं खाया आज ?” तभी बुआ ने पन्नों की जाली से झांकते हुए पूछा,“ ये वाली भी?”  इससे पहले की हम कुछ बोल पाते, बुआ और पिताजी ज़ोर -ज़ोर से हंसने लगे और एक दूसरे को देखते हुए बोले, “ ये तो हमसे भी बढ़िया कलाकार निकले !”
हम एक दूसरे की शक्ल देखने लगे तभी पीछे से दादी आकर बोली, “ तेरे पिताजी भी कोई कम बदमाश नहीं थे, शैतानियों में तो वो तुम्हारे भी बाप थे, समझे क्या! चलो भागो यहाँ से और आगे से बिना पूछे कोई किताब से कुछ मत काटना. बन्नो तू सिम्मी और पुष्पा से बात कर लेना.”
दादी की बात की बात के साथ -साथ पहली ये मुहावरा भी समझ में आया कि बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप!
अजी, हम तो सिर्फ़ अपने बड़ों के नक़्शे कदमों पर ही चल रहे थे. क्या समझे!

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...