चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता और फिर दोनो तरफ़ काली पिंस! बालों को छूने के लिए मैं जैसे ही हाथ ऊपर करती, वैसे ही माँ की आवाज़ आती-“ छेड़ना मत! मुश्किल से बनाई हैं. तेल से दिमाग़ तेज होता हैं और खुश्की नहीं होती.” दिमाग़ का तो पता नहीं, तेल की इस एक्स्ट्रा डोस से सोशल डिस्टन्सिंग ज़रूर हो जाती थी. ऐसा लगता था कि पूरे महीने का तेल मेरे सिर में भर दिया है! पर माँ से बहस करने की हिम्मत नहीं होती, चुपचाप बैग में लंच बॉक्स रख और पानी की बॉटल उठा कर घर से बस स्टाप की ओर चल देती.
बातें बचपन की
Friday, May 12, 2023
तेल का तमाशा
Sunday, October 9, 2022
गोलगप्पे का पानी
हमारी तो रही सही इज़्ज़त भी मिट्टी में मिल गयी जिस दिन यह काण्ड हुआ- हम तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि हमारा पासा उल्टा पड़ जाएगा. लगातार बारिश की वजह से हम लोग बहुत फ़्रस्ट्रेटेड हो गए थे - पहले दो दिन तो बारिश खूब अच्छी लगी फिर टू मच हो गया. बाहर खेलने जा नहीं सकते थे और घर में दादी, बुआ और पिताजी की डाँट की बेमौसमी बारिश से बच नहीं पा रहे थे. एक माँ ही हमारी साइड थी क्योंकि वो हर बात प्यार-दुलार से समझाती, ना कि डाँट- डाँट कर.
Monday, June 14, 2021
बचपन की मिठास
हमारे घर के पास के बहुत बड़ा पीपल का पेड़ था और बग़ल में सुरेश हलवाई की दुकान थी- एक तरफ़ विशालकाय कड़ाई में दूध उबलता रहता और दूसरी तरफ़ वो दुकान के साथ में रखे बेंचों पर बैठे ग्राहकों के लिए चाय बनाता रहता. उसकी दुकान बहुत बड़ी नहीं थी, एक लम्बी दुकान जिसकी पीछे की तरफ़ काँच की अलमारियों में खाने के बड़े-बड़े थाल रखे रहते थे.एक में नमकीन और दूसरे में मिठाई रखी होती- मूँग की दाल, दालमोठ, नमकपारे और काली मिर्च वाली मठरियाँ तो दूसरी अलमारी में बेसन और मोटी बूंदी के लड्डू, खोया बर्फ़ी, बेसन की बर्फ़ी, छेनामुरकी और गुड़पारे. सामान तो लिमिटेड था पर टेस्ट में बेहद ग़ज़ब था !
दुकान के इंटिरीअर्ज़ बहुत ही बेसिक थे- पीछे की दीवार पर बड़े -बड़े लकड़ी के फट्टे लगा कर सामान रखने का प्रबंध किया हुआ, वही साथ में चार बड़े आले थे जिन में दुकान की रोज़मर्रा की चीजें रखी हुई थी. ये तो दुकान का आगे का हिस्सा था अब चलिए पीछे की तरफ़- एक छोटा सा दालान जिसने में मैदा और चीनी की बोरियाँ, बड़ी-बड़ी कड़ाइयाँ, दूध के बर्तन और बड़ी- बड़ी परात जिसमें मठरी और नमकपारों के लिए मैदा गूँधी जाती थी . फिर आगे की तरफ़ एक छोटा सा आँगन था जिसमें अक्सर बारिश का पानी भर जाता और बड़े भागौने कश्तियों जैसे फ़्लोट किया करते थे.
सुरेश की दुकान पर हमेशा भीड़ रहती थी, लोग चाय की चुस्कियों और मिठाई की मिठास में अपनी रोज़मर्रा की परेशानियों को भूल जाते थे, तो कभी बेस्वाद जीवन को कचौरियाँ खा कर चटपटा बना लेते थे. मंगलवार के दिन पवनपुत्र हनुमान के पास अपनी प्रार्थना शीघ्र पहुँचाने के लिए मीठी बूंदी का संग ढूँढ लेते, इम्तिहान में पास हए बच्चों की ख़ुशियाँ खोये की बर्फ़ी के साथ बाँट लेते, नये मेहमान के आगमन के बारे में बूंदी के लड्डू बाँट कर कर बता देते , कहीं जागरण और पूजा-पाठ होता तो लड्डू-कचौरी का छोटा डिब्बा सबकी डाइनिंग टेबल पर पहुँच जाता, कभी किसी की सगाई की बर्फ़ी और कभी बस ऐसे ही जब कुछ मीठा खाने का मन होता! जीवन की हर छोटी-बड़ी ख़ुशियाँ सुरेश की दुकान के नमकीन और मीठे के साथ जुड़ी हुई थी- जब मन होता हर कोई अपनी ख़ुशियों को बाँट लेता और अपनी ख़ुशियों के दायरे को और बड़ा बना लेता.
अब हमारा चक्कर तो ऑल्मोस्ट हर दिन ही लग जाता था. “ जा भाग कर सौ ग्राम मूँग की दाल और खोये की बर्फ़ी ले आ, नई सड़क वाली नानीजी आने वालीं हैं” या “ तेरी मौसी आ रही है, जल्दी जा कर दालबीजी, नमकपारे और बेसन के लड्डू ले आ.” कुछ मिठाई का लालच कुछ मेहमान की आने की ख़ुशी हमें सुरेश की दुकान तक पहुँचा देती थी. ताज़ा बनी मिठाई को भला कौन मना करता है!
लेकिन देखिए समय कैसे बदल जाता है- पहले मिठाई जी भर कर खाते थे और पूरा-पूरा दिन खेलते और मस्ती करते थे. आज मिठाइयों की कमी नहीं पर अब सेहत का ध्यान रखना पड़ता है, आधा टुकड़ा बर्फ़ी खा लो तो मन में यही विचार कौंधता है, “ आज मीठा बहुत ज़्यादा हो गया, कल तीन किलोमीटर एक्स्ट्रा दौड़ना पड़ेगा.”
आज सब कुछ होते हुए भी बचपन की बेफ़िक्री नहीं है, रिश्तों में प्यार की मिठास नहीं है और आपस में तालमेल की चाशनी नहीं है, सिर्फ़ बेस्वाद, नीरस रोज़ की ज़िंदगी और बेहिसाब तनाव है !
Friday, April 16, 2021
वॉकमैन का वॉक आउट
परसों की ही बात है हमारे मोहल्ले में ऐसा हंगामा मचा की मैं आपको अब क्या बताऊँ! आप जानना चाहेंगे की मोहल्ले में ऐसा क्या बवाल हुआ जिसने उस दिन को अत्यंत हैपनिंग बना दिया ? चलिये, मैं आपको फ़्लैश्बैक में ले चलता हूँ! इतवार का दिन था घर के सारे काम स्लो स्पीड पर हो रहे थे- किसी को भी कोई काम करने की जल्दी नहीं थी. पिताजी सुबह से चार बार चाय पी चुके थे चौथी और टाइम्ज़ ओफ़ इंडिया चाटने में व्यस्त थे, दादी पापड़ और बड़ियाँ सूखा रही थी और साथ- साथ माँ को इन्स्ट्रक्शन भी देर रही थी,” अरी, ज़रा जल्दी-जल्दी हाथ चला, इन पापड़-बड़ियों के साथ आम की फाँके भी सुखानी है. धूप चली जाएगी तो ये सूखेंगी नहीं.”
बन्नो बुआ अपनी सहेली के साथ फ़िल्म गयी हुई थी और हम लोग चारपाई पर सुस्ता रहे थे-बबलू चंदामामा पढ़ने में बिज़ी था, गोलू चारपाई की रस्सी को खींच-खींच कर निकाल रहा था और मैं- इन सबको को देखते हुए ये सोच रहा था की आज के दिन को मज़ेदार कैसे बनाया जाए.
कुछ तो किया जाए जिससे ये संडे फनडे बन जाए! इतने में शर्मा अंकल ने पिताजी को आवाज़ लगाई, “ क्या बात है भाईसाहब, अकेले -अकेले चाय पी जा रही है, एक कप हमारा भी बनता है.” पिताजी ने उन्हें देखा और माँ को चाय बनाने के लिए बोला. इतवार के दिन अक्सर पिताजी के दोस्त घर पर चाय पीने के लिए टपक पड़ते थे और फिर दोपहर का खाना खा कर ही विदा होते थे.माँ से ज़्यादा तो हमें ऐसे मुफ़्तख़ोरों से चिड़ थे पर हम कुछ कह नहीं सकते थे. अब आ बैल मुझे मार में हमें बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी!अंकल और पिताजी पॉलिटिक्स पर डिस्कशन कर रहे थे और हमारी बोरियत बढ़ती जा रही थी.
इतने में गली में कुछ शोर सुनाई दिया, हम तीनों लपक कर जाली के दरवाज़े पर लटक गए ताकि हम कोई भी ऐक्शन मिस ना करें. जा कर देखा तो कोई भी ना दिखायी पड़ा, हमें लगा शायद दूसरी तरफ़ से आया होगा तो अपना सा मुँह लेकर बरामदे में लगे झूले की तरफ़ चल दिए. चलो कुछ नहीं तो झूला ही झूल लेते हैं, अब टाइम तो पास करना है.इतने में टप्पू ने ज़ोर से आवाज़ लगायी, “ ओए, जल्दी आ तुझे कुछ बताना है.” मैंने झट देनी झूले से कूद मारी और पहुँच गया जाली के दरवाज़े पर खड़े टप्पू मियाँ के पास. “ क्या है? क्यों अपना गला क्यों फाड़ रहा है ?” मैंने उससे पूछा. इससे पहले कि वो कुछ बताता, पीछे से मिंटू बोल पड़ा, “ देवेन के चाचाजी उसके लिए हॉंगकॉंग से वॉकमैन ले कर आए हैं, जल्दी चलो देख कर आते हैं.” मैंने झट से अपनी बाटा की नीली हवाई चप्पल पहनी और हम सब दौड़े देवेन के घर.
वहाँ का तो नजारा ही अलग था- मेला सा लगा हुआ था! मोहल्ले के सारे बच्चे वही पर जमा थे, एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख उचक-उचक कर वॉकमैन की एक झलक पाने के लिए. अबे! ऐसा क्या है जो सब के सब मरे जा रहे हैं देखने के लिए! हमें देखते ही देवेन ने इशारे से हमें आगे आने को कहा- हम सबको चीरते हुए, ना! ना! फिर से आप ग़लत सोचने लगे, हम बच्चों के बीच से निकलते हुए देवेन के पास पहुँचे तो आँखें खुली की खुली रह गयीं. नीले और सिल्वर रंग वाले सोनी वॉकमैन ने तुरंत ही हमें अपनी और आकर्षित कर लिया - इतना छोटा और बेरोकटोक म्यूज़िक का भंडार! हेड्फ़ोन कान में लगाओ और चलते- फिरते, उठते-बैठते, गिरते-पड़ते म्यूज़िक सुनते रहो! कितना मज़ा आता होगा ना.
हमें लगा देवेन हमें उससे गाने सुनने का एक चान्स देगा पर उस ने तो साफ़ इनकार कर दिया.” तुम सब जाओ अब मैं कुछ देर गाने सुनूँगा. शाम को पार्क में मिलते हैं.” हम सब घर वापिस आ गए पर पूरे रास्ते सिर्फ़ वॉक मैन की बात ही करते रहे. माँ ने खाने के लिए बुलाया तो ये झूठ बोल दिया की हम देवेन के घर से बिस्किट और समोसे खा कर आए हैं. दिमाग़ में तो बस वॉक मैन ही वॉक कर रहा था!
हम लोग कमरे में औंधे पड़े देवेन के बारे में बतिया रहे थे अचानक खूब शोर सुनाई दिया और साथ में पकड़ो- पकड़ो की आवाज़ें! हम फटाफट आँगन की तरफ़ भागे तो देखते क्या हैं की दादी और माँ मनीषा काकी से बातें कर रही है और पिताजी गली के सारे लोगों के साथ खड़े हो कर जसजीत की छत की और ताक रहे हैं.
इतने में क्या देखते हैं की मुन्ना चाचा और उनके कुछ फ़्रेंड्ज़ लम्बी - लम्बी बांस की लाठियाँ ले कर हुर्र-हुर्र की आवाज़ें निकलने लगे. “ ये क्या हो रहा है? मोहल्ले के सारे लोग किस ख़ुशी में यहाँ जमा हैं? और ये मुन्ना चाचा ऐसी आवाज़ें क्यों निकाल रहे हैं?” प्रश्न अनेक पर उत्तर देने के लिए कोई भी इंट्रेस्टेड नहीं! इतने में समर आया और बोला, “ कांड हो गया भाई, कांड! अबे, कहाँ थे तुम लोग? सारी गली के लोग आ गए हल्ला सुन कर तुम तीनों पता नहीं कहाँ दफ़ा थे?”
इससे पहले मैं कुछ पूछता या समर कुछ बताता दीपक काका ज़ोर से चिल्लाये, “ वो रहा लंगूर देवेन के वॉक मैन के साथ! जल्दी से सुषमा बुआ की छत पर किसी को भेजो उसे पकड़ने के लिए. सुधीर, तू ज़रा जा कर देख वो निकम्मे म्यूनिसिपैलिटी वाले अभी तक आए क्यों नहीं? जल्दी करो, टाइम मत वेस्ट करो.”
हैं! ये क्या हुआ? जब हम देवेन के घर से लौटे थे तब तक तो सब ठीक था - ये कब हुआ ? लंगूर को गाना सुनने का चस्का कब से लगा?
सामने देखा तो देवेन खड़ा रो रहा था, अब उसे दिलासा देने का तो हमारा फ़र्ज़ बनता था. रोनी सूरत बना कर हम उसके पास पहुँचे तो वो हिचकियाँ लेते बोला, “जानते हो मेरे साथ कितना बुरा हुआ- तुम लोगों के जाने के बाद मैं छत पर जा कर म्यूज़िक सुन रहा था और संतरे खा रहा था. मैंने सोचा धूप में बैठा हूँ तो कुछ कॉमिक्स भी पढ़ने के किए ऊपर ले आता हूँ. अब मुझे क्या पता था की मेरी ये गलती मुझ को बहुत भारी पड़ेगी.” मैं कॉमिक्स ले कर जैसे ही वापिस आया तो क्या देखता हूँ की चारपाई के पास एक लंगूर बैठा जिस के हाथ में मेरा वॉक मैन है और उसकी दूसरी तरफ़ संतरे के छिलके. मैं तो एकदम घबरा गया और डर के मारे मैं ज़ोर से चीखा. लंगूर ने जैसे ही मेरी चीख सुनी, वो चारपाई से कूद कर मेरा वॉक मैन हाथ में ले कर छत की दूसरी ओर लपका. इससे पहले मैं कुछ कर पता वो लम्बी कूद में दो-तीन छतें फ़ांद कर भाग गया.”
अपनी रामायण सुनाने के बाद वो फिर से रोने लग गया. बात तो बहुत सैड थी पर हम लोग थोड़े कमीने टाइप्स थे- मन ही मन खुश हो रहे थे. ले बच्चू, तूने हमें गाने नहीं सुनने दिए ना अब भुगत उसका नतीजा! हमारा श्राप लगा है तेरे वॉक मैन को! कहना को मन तो बहुत कर रहा था पर ये बात हमारे मुँह पर कभी ना आयी. हम ने उसके साथ हमदर्दी जतायी और खड़े हो कर तमाशा देखने लगे.
“अभी पिक्चर बाक़ी है मेरे दोस्त!” सोनू आकर मेरे कान में फुसफुसाया. मन में आया की उसके कान के नीचे एक बजा डालूँ पर सिचूएशन की डिमांड थी- की मेरे चुप रहने में भलाई है. इसलिए शराफ़त से खड़े हो कर देखने लगे की अब आगे क्या होगा.
तभी सुषमा बुआ की छत पर दो- चार आदमी नज़र आए. शायद, वो आदमी म्यूनिसिपैलिटी वाले थे जो लंगूर को पकड़ने आ गए थे. इस से पहले की कोई उससे पकड़ता लंगूर ने पवन पुत्र हनुमान की तरह लंका के उद्यान यानी हमारी गली में उपद्रव मचा दिया. एक छत से दूसरी छत पर धुले कपड़ों को नीचे गिराते हुए, सूखते पापड़ों पर पैर धरते हुए, अचार के मर्तबान लुढ़काते हुए महाशय पीपल के पेड़ की तरफ़ लपके.
फिर वही हुआ जिसका डर था - इस लपका-लपकी में लंगूर ने वॉक मैन को फ़्लैट मैन बना दिया! पीपल की सबसे ऊँची डाल पर चढ़ कर उसने वॉक मैन को स्विंग कर के ऐसा फेंका की उसको धरती की धूल चटा डाली. किसी को इतना टाइम भी न दिया की कोई उसे पकड़ सके.
देवेन का वॉक मैन वापिस आया ज़रूर पर टुकड़ों में !
उसके कितने टुकड़े हुए ये तो मुझे याद नहीं पर देवेन की लापरवाही के लिए जो उसकी धुलाई हुई वो पूछिये ही मत.
मियाँ लंगूर की मेहरबानी से देवेन की ज़िंदगी से वॉकमैन हमेशा के लिए वॉक आउट कर गया...
तेल का तमाशा
चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...
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हमारा घर कुछ अलग सा था, बहुत कुछ कहता और सुनता था- कुछ कहीं- अनकही बातें, क़िस्से और कहानियाँ, ढेर सी शिकायतें, प्यार- मोहब्बत से भरे अल्फ़ा...
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गर्मियों शुरू होने के कुछ हफ़्ते पहले से ही हमारे घर का कुछ अलग ही नज़ारा होता था- हर कोई बस बिज़ी दिखाई पड़ता था.जिस स्टोर की तरफ़ कोई देखत...
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हम बच्चे मेहमानों का बहुत ही बेसब्री से इंतज़ार करते थे. ना, ना हमारे लिए वो "अतिथि देवो भव:" नहीं होते थे परन्तु बढ़िया खाने का ...