Friday, May 12, 2023

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता और फिर दोनो तरफ़ काली पिंस! बालों को छूने के लिए मैं जैसे ही हाथ ऊपर करती, वैसे ही माँ की आवाज़ आती-“ छेड़ना मत! मुश्किल से बनाई हैं. तेल से दिमाग़ तेज होता हैं और खुश्की नहीं होती.” दिमाग़ का तो पता नहीं, तेल की इस एक्स्ट्रा डोस से सोशल डिस्टन्सिंग ज़रूर हो जाती थी. ऐसा लगता था कि पूरे महीने का तेल मेरे सिर में भर दिया है! पर माँ से बहस करने की हिम्मत नहीं होती, चुपचाप बैग में लंच बॉक्स रख और पानी की बॉटल उठा कर घर से बस स्टाप की ओर चल देती.

दो कदम चली भी नहीं कि पीछे से मुक्ता की आवाज़ आती, “ सिम्मी, रुक मैं भी चलती हूँ बस एक बुक रखनी है.” मैं घर के बाहर खड़े हो कर अपनी सिर पर हाथ फेरने वाली ही थी कि अचानक से पूनम आंटी मिल गयी. “ लगता है आज माँ ने खूब अच्छे से तेल लगाया है, धूप में चमक रहे है बाल!” मन करा पलट कर जवाब दूँ पर माँ की डाँट के डर से चुप हो जाती. इतने में मुक्ता की कर्णभेदी आवाज़ , “जल्दी चल नहीं तो बस मिस हो जाएगी” के साथ ताल मिला बस स्टॉप की और रुख़ कर लिया. 
अब आगे का हाल सुनिये- तेल से चमकते और महकते बाल आज का विशेष टॉपिक बन गया था. जिसको देखो मेरे बालों के पीछे पड़ गया था. बस क्या और क्लासरूम क्या!! मैं तो सबके लिये इंटरटेनमेंट-इंटरटेनमेंट-इंटरटेनमेंट बन गई थी.

रुचि ने फ़िकरा कसा,” ओहो जी, आज तो आंटी ने अच्छे से रगड़ाई कर दी है. सब बच के रहना, आज इसका दिमाग़ ज़रूरत से ज़्यादा तेज़ चलेगा. “ इस पहले मैं कुछ कहती श्रुति बोल पड़ी, “ हाय, मेरी साईकिल कुछ रुक- रुक कर चल रही है, सोचती हूँ थोड़ा सा तेल तुझ से उधार ले ऑलिंग कर दूँ तो बढ़िया चलने लगेगी.” 
आजू-बाजू में बैठी कनिका और पूनम खी-खी करने लगी तो मुझे बहुत बुरा लगा- ऐसा था कि बस कोई एक और बात बोलेगा तो मेरे आँखों से आँसुओं की गंगा बह निकलेगी. 
इससे पहले की कोई और विष से भरा बाण चलता, मिसेज़ चोपड़ा ने क्लास में एंट्री मारी. उनके क्लास में आते ही सब कुछ अपनी जगह ठिकाने पर आ गया. दीपा, कनु और विद्या झट से अपनी सीट पर वापिस आ कर बैठ गयी, सुमन और मनीषा ने अपनी कॉन्वर्सेशन रोक दी, नीलू, पूनम और मोनिका को तो मानो साँप सूँघ गया- होंठों पर उँगली रख अपनी जगह पर चली गयीं. दीपाली तो जैसे स्टैचू ही बन गयी थी - टीचर के ना आने का फ़ायदा उठा वह अपनी कलाकारी के नमूनों से ब्लैकबोर्ड को सजा रही थी.
 “ क्या हो रहा इस क्लास में? चलिए, अपनी सीट्स पर जाइए - ठूंठ सी लंबी लड़कियाँ हैं पर अक्ल टखनों में भी नहीं.
और आप ये क्या चित्रकारी कर रहीं हैं?”
 दीपाली को तो मानो साँप सूँघ गया हो! 
“ मैं आप से बात कर रही हूँ! डस्टर उठा कर सारी चित्रकारी साफ़ करिये और अपनी सीट पर जायें.” 
दीपाली ने सुपर स्पीड से ब्लैकबोर्ड को साफ़ करा और अपनी सीट की तरफ़ लपक ली.
“ अजीब बच्चियाँ हैं आजकल की - क्लास टीचर नहीं आयी है तो क्लास को मच्छी बाज़ार बना दिया. शर्म करिए कुछ. क्यों अपने स्कूल की और माँ- बाप की इज़्ज़त उतरवाने में लगी हो ?”
मेरे पीछे बैठी मनीषा फुसफुसाई, “हे भगवान! इतना सुना डाला - थोड़ा सा हँस- खेल लिए तो वह गुनाह हो गया.” 
उसको तो मैंने कुछ नहीं कहा - पर हँसी मज़ाक़ ऐट माय कॉस्ट!! मेरे लिये तो अच्छा ही हुआ क्योंकि मैं अपने बालों के बारे में कोई भी और बकवास झेलने के मूड में नहीं थी. मेरा सैचुरेशन पॉइंट आ गया था! ये तो एकदम देवदूत जैसे प्रकट हुईं थी और मुझे अनवांटेड कमेंट्स की दोज़ख़ से बाहर निकल लिया था.

“ अपनी जियोग्राफी की बुक और एटलस निकालिए. प्रेरणा मेहरा! अब आपको अलग से कहना पड़ेगा. जल्दी कीजिये.” दरअसल, मिसेज़ चोपड़ा हमे जियोग्राफी पढ़ाती थी और दुनिया से ज़्यादा वह हमें अपने नये- नये तानों से अवगत करवाती थीं. उनके ताने भी एकदम ओरिजिनल होते- अगर किसी को एटलस में कोई शहर/ देश नहीं मिलता तो उसे वे ऐसे तानों से नवाज़ती- “अभी रेखा - अमिताभ के बारे में कोई खबर ढूँढनी हो तो झट से ढूँढ लोगी. मगर इन देवी जी से सूरीनाम नहीं ढूँढा जा रहा. माँ- बाप के पैसों से होली खेलने का ठेका तो तुम ने ही ले रखा है दीप्ति गुलाटी! जाइये क्लास के बाहर और दरवाज़े की शोभा बढ़ाइये.”
“ किसी और को इनका साथ देना तो अभी बता दीजिए मेरे लिये आसान हो जाएगा.”
सबकी सिट्टी- पिट्टी गुल! सब अपनी आँखें एटलस में गड़ा के बैठ गए - जाने किस पर क्वेश्चन का बम फूटेगा और फिर उत्तर ना देने पर उसका क्या हश्र होगा. 
“ हाँ जी, अब ध्यान से अफ़्रीकन कांटिनेंट को स्टडी कीजिये- फिर मैं आपसे क्वेश्चन पूछूँगी.” 
ओ तेरी! ये तो बेहद ख़तरनाक हो गया - कहाँ से, कैसे, कौन से हिस्से से क्वेश्चन का तीर चलेगा हमें कुछ नहीं पता था. हम सब मुँह में दही जमा अफ़्रीका के मैप में नज़रें घुसा कर उसे ध्यान से स्टडी करने में लग गए.
“ हाँ जी, हो गया? 
निकिता चौबे, बताये कालाहारी डेजर्ट कहाँ है? अपने मैप पर उसे मार्क करके मुझे दिखाइये.”
निकिता इधर- उधर देखने लगी और एकदम ब्लेंक! 
अब आगे की सीट पर बैठने का सबसे बड़ा नुक़सान- टीचर के रडार पर आप सबसे पहले आते हो. 
अब जैसे तैसे उसने मार्क किया और डरते हुए मिसेज़ चोपड़ा के पास के गई.
“ दिखाओ, क्या कर के लायी हो? 
हद हो गई! तुम लड़कियाँ एकदम निकम्मी हो- क़ाम की ना काज की ढाई सेर अनाज की! मेकअप करने में एक्सपर्ट पर अफ़्रीका का नक़्शा समझने में ढोपरशंख. टाइम दिया था ना स्टडी करने का पर नहीं पढ़ाई में तो दिमाग़ लगता ही नहीं है! जाइये और अपनी सहेली के साथ दरवाज़े की शोभा बढ़ाइये.”
उनका तो इतना कहना था और सारी क्लास में सन्नाटा छा गया. निकिता क्लास से बाहर और हम क्लास के अंदर साँस रोके हुए ये सोचने लगे की अब और कौन शहीद होने वाला है.
अपनी मुंडी नीचे कर हम सब अफ़्रीका में घुसे ही थे कि इतने में आवाज़ आयी,” सिम्मी वर्मा चलिए अब आप बताइये कि सहारा डेजर्ट कहाँ है? मार्क करिये और आइये मेरे पास.“
मेरी तो हालत ख़स्ता- सपने में भी ना सोचा था की मेरा नंबर इतना जल्दी आ जाएगा. 
मैप पर मार्क तो कर किया पर मालूम नहीं सही या ग़लत - डरते हुए जैसे ही मिसेज़ चोपड़ा के पास पहुँची और उन्हें मैप पकड़ाया. उन्होंने चश्मे के नीचे से झांकते हुए बोला- “ चलो, कोई तो है जो यहाँ कुछ जानता है वरना मुझे लगा सब की सब गोबर गणेश हो. सब लड़कियाँ मैप में ये ठीक से मार्क करें.”
मैं तो स्तब्ध रह गई अपनी तारीफ़ सुनकर!
मैं जैसे ही सीट पर जाने लगी मिसेज़ चोपड़ा बोली, “जाते-जाते ये भी बता जाना की आज माँ ने सिर में इतना तेल क्यूँ लगाया है? शायद, इसी वजह से तुम्हारा दिमाग़ तेज़ हो गया है.”
उनका तो ये कहना था और पूरी क्लास ज़ोर- ज़ोर से हँसने लगी. मुझे तो समझ नहीं आया की यह क्या हुआ और मेरी आँखों से आँसू! 
तभी मिसेज़ चोपड़ा की आवाज़ गूंजी,” चुप हो जाए सब.” सारी क्लास में पिन ड्राप साइलेंस!
वे उठ कर मेरे पास आयी और बोली, “ इसमें रोने की क्या बात है - तुम तो बहुत प्यारी बच्ची हो. अगर तुम्हें मेरी बात का बुरा लगा तो आई एम सॉरी! ” फिर मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा और मुझे गले से लगा लिया. 
मिसेज़ चोपड़ा कभी किसी से प्यार भरी बात नहीं कहती थी- हमने हमेशा उनके मुँह से सिर्फ़ ताने ही सुने पर आज लगा की दिल की वो बुरी नहीं है. शायद, मेरे तेल वाले बाल की बदौलत हम उनका दूसरा रूप देख पाये जो हम पहले कभी नहीं देख पाए थे. सॉरी कहना आसान नहीं है पर उन्होंने ये साबित कर दिया की सॉरी कहने से कोई छोटा नहीं हो जाता पर उसका लेवल और बढ़ जाता है! आज ना तो मिसेज़ चोपड़ा हैं और ना ही हम स्कूल में पर एक छोटे से वाक़ये ने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सीख सीख दी.

Sunday, October 9, 2022

गोलगप्पे का पानी

हमारी तो रही सही इज़्ज़त भी मिट्टी में मिल गयी जिस दिन यह काण्ड हुआ- हम तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि हमारा पासा उल्टा पड़ जाएगा. लगातार बारिश की वजह से हम लोग बहुत फ़्रस्ट्रेटेड हो गए थे - पहले दो दिन तो बारिश खूब अच्छी लगी फिर टू मच हो गया. बाहर खेलने जा नहीं सकते थे और घर में दादी, बुआ और पिताजी की डाँट की बेमौसमी बारिश से बच नहीं पा रहे थे. एक माँ ही हमारी साइड थी क्योंकि वो हर बात प्यार-दुलार से समझाती, ना कि डाँट- डाँट कर.


जानना चाहतें हैं उस दिन क्या हुआ- चलिए बताता हूँ. हुआ यूँ कि मदन चाचा और विम्मी चाची शाम को हमारे घर आने वाले थे. सुबह से दादी और माँ बहुत बिज़ी थे- “ शगुन, दही जमा देना- शाम तक अच्छी जम जाएगी. आलू भी उबाल कर रख देना, मैंने दाल भून दी है कचौरियों के लिए - ज़रा देख लेना, मसाला कम हो तो डाल देना.”  दादी की हिदायतें हैं या फिर द्रौपदी का साड़ी खतम ही नहीं होती है ! घर में ये सब और ऊपर से बारिश से नाक में दम - समझ नहीं आ रहा था क्या करे. बरामदे में बैठते तो बन्नो बुआ शुरू हो जाती, “ तुम निकम्मों के पास आज कुछ करने को नहीं है तो जाकर लूडो खेल लो- यहाँ बैठोगे तो कोई ना कोई बदमाशी ही करोगे.” बैठने का मतलब बदमाशी नहीं होता बुआ, ये बात हमारी ज़ुबान पर आते-आते रह जाती. बुआ से पंगे लेने का कोई मूड नहीं था - हम ने एक दूसरे को आँखों ही आँखों में इशारा किया और कमरे में चले गए. वहाँ बैठ कर सोचने लगे की इस नॉन-स्टॉप बारिश वाले दिन को कैसे मज़ेदार बनाए. “ चलो अख़बार फाड़ कर किश्तियाँ बनाते हैं- आँगन में जो तालाब बन गया उस में उन्हें लॉंच करेंगे,” चिंटू बोला. “ अबे गधे, काग़ज़ की किश्ती है कोई रॉकट नहीं जो उसे लॉंच करेंगे,” खिड़की में बैठा बबलू चिलाया. अर्रे! यहाँ तो बारिश के साथ- साथ पटाखे भी फूटने लगे, कुछ तो करना ही पड़ेगा. क्या करे, क्या करे!
जैसे तैसे सबको इकट्ठा कर के बरामदे में पहुँचे तो झरना मौसी की आवाज़ सुनाई दी,” अम्मा बड़ी मुश्किल से आयी हूँ- सड़कों पर घुटनों तक पानी भरा था. कोई बस नहीं मिली, पैदल चल कर पहुँची हूँ तुम्हारे पास.” दादी सिर हिलाते-हिलाते उनकी बात सुन रही थी. एक और मेहमान, वो भी बिन बुलाया! नॉट गुड. हैं! इतनी बरसात में भी अपने घर में चैन नहीं झरना मौसी जो यहाँ हम सब को बेचैन करने चली आयीं! ( ये मेरी अंदर की आवाज़ बोली!)

चलिए, मैं आपको अपने मेहमानों के बारे में कुछ बताता हूँ. सबसे पहले, मदन चाचा- वो पापा के ताऊजी के सबसे छोटे बेटे हैं और एक नम्बर के फेंकू भी हैं. हर बात को बढ़ा- चढ़ा के बताना, लम्बी- लम्बी हाँकना और खुद को सबसे ज़्यादा अक़्लमंद साबित करना उनका नैशनल पास्टटाइम है. फिर आती है विम्मी चाची यानी की उनकी धरमपत्नी- अगर पति सेर है तो पत्नी सवा सेर! उनको और उनके ख़ानदान को दुनिया के सब लोग जानते हैं चाहे नेता हो या अभिनेता, हर हफ़्ते उनको इन्वाइट्स आते हैं, वो सिर्फ़ विदेशी चीजें ही इस्तेमाल करती और ना जाने क्या- क्या. भगवान जाने चाची के पास इतनी गप सुनाने की ताक़त कहाँ से आती है! हम में इतना झेलने की शक्ति नहीं थी. एक ये लोग, दूसरी झरना मौसी- माँ की ममेरी बहन है पर है एकदम बातूनी! बातें करने में उन्होंने डॉक्टरेट की हुई है- कोई भी, जी हाँ कोई भी टॉपिक हो, कैसा भी टॉपिक हो उनकी बातें रुकती नहीं हैं. उनकी बातों की ट्रेन चलती रहती है नान स्टाप! इक्स्प्रेस ट्रेन जो किसी स्टेशन पर रुकना नहीं जानती. 
बन्नो बुआ की ये फ़ेवरेट है- दोनों एक जैसे हैं और दादी की भाषा में बोलूँ तो , “ काम की ना काज की ढाई सेर अनाज की!” जब भी आपस में मिलती हैं तो बस बातें ही करती रहती हैं,” हाय, जीजी ग़ज़ब का सूट लग रहा है, मुझ भी अपने दर्ज़ी के पास ले चलना मैं भी एक- दो सिलवा लूँगी. एक दम टॉप क्लास फ़िटिंग दी है उसने.” झरना मौसी की तो आत्मा प्रसन्न हो उठती,” अरी, चल फिर कल ही चलते हैं- पहले श्याम लाल की दुकान से कपड़ा लेंगे, दर्ज़ी को दे कर सीधे मैचिंग सेंटर से दुपट्टा उठाएँगे. फिर, अगर तुझे कोई और काम नहीं है तो बिन्नी के घर चलते हैं.” सुना है उसके पास कुछ इम्पोर्टेड स्वेटर आये हैं देख कर आते हैं.”  हम इन दोनों की बातें सुन-सुन कर पक जाते तो ताजी हवा खाने बरामदे में आ जाते.
लेकिन आज बारिश ने हमारे साथ पेंगे ले रखे थे- रुकने का नाम ही नहीं ले  रही थी. हम अंदर खड़े हो कर मूसलाधार बारिश में इधर- उधर होती हो चीजों को देख कर बोर हो रहे थे. ऊँची क्यारियों में पानी ओवर्फ़्लो हो कर ऐसे गिर रहा था मानो नीयग्रा फ़ॉल हो! आज पेड़, पौधे तो ज़रूरत से ज़्यादा ही नहा लिए थे.  अब इसके बाद तो सिर्फ़ उन्हें ड्राई क्लीनिंग ही चाहिये होगी. ख़ाली गमले, जंग लगे कनस्तर, डालडा के ख़ाली डिब्बे और बाल्टी को पानी की अन्लिमटेड सप्लाई मिल रही थी तो दूसरी तरफ़ हमारे घर का आँगन एक मिनी पूल जैसा प्रतीत हो रहा था. फ़र्क़ इतना था की पूल में इंसान स्विमिंग करते हैं यहाँ पर बाल्टी, गमले और कनस्तर आपस में टकराते हुए स्विमिंग का आनंद ले रहे थे! 
“ चल बे अंदर चल के कैरम खेलते हैं, कब तक बारिश को निहारते रहेंगे!” ये कह कर बिट्टू अंदर चल गया. हम सब उसकी पूँछ, जहां वो वहाँ हम! कमरे में पहुँचे तो नज़ारा ही अलग था - बातें ही बातें. माँ और विम्मी चाची एक दूसरे के साथ रेसिपी शेयर कर रही थी, तो दूसरी तरफ़ पिताजी और मदन चाचा चाय पीते हुए पोलिटिकल डिस्कशन कर रहे थे, बन्नो बुआ और झरना मौसी तो हमें नज़र नहीं आए पर दादी सोफ़े पर ऊँघती ज़रूर दिखायी दी. 
तभी बन्नो बुआ ने माँ को आवाज़ दी, “ भाभी खाना कितनी देर में तैयार 
होगा ? झरना और मुझे बहुत भूख लग रही है.”
हैं! कुछ काम करे बिना भूख लग रही है- नोट फयेर. जी में आया की कह दूँ बुआ कभी तो कुछ काम कर लिया करो. थोड़ा माँ को भी ब्रेक मिलेगा. पर, ये बातें ज़ुबान पर आने से पहले ही यू-टर्न मार गयी. 
“ बस अभी थोड़ी देर में शुरू करती हूँ दीदी”, माँ ने बुआ को बोला. सब ही बिज़ी थे और हम सब टोटल वेले! अब खुद को कैसे एंटर्टेन करे कुछ समझ नहीं आ रहा था - तभी मोंटू आया और चटखारे लेता हुआ बोला, “ कचौरी तो ग़ज़ब बनी है!” 
हम सब दंग रह गए . माँ को पता चलेगा तो बहुत डाँट पड़ेगी. मेहमानों ने तो खाया भी नहीं और हमने चखना भी शुरू कर दिया! पर क्या करे पापी पेट का भी तो सवाल है - उसके भुखमरी के कठिन सवालों को इग्नोर करें तो भी कैसे करें …
हम सारे धीरे से सरक लिए रसोई की तरफ़ जहां से हमें कचौरी, गोल -गप्पे, मिठाई और बहुत कुछ टेस्टी चीजें अपनी बाहें नहीं, नहीं ख़ुशबू फैलाए बुला रही थी. माँ और दादी ना आ जाए मैंने झट देनी मुँह में एक मटर कचौरी भरी तो मोंटू ने हाथ मारा बेसन के सेव पर, बिट्टू जी ने तो दो- चार मठरियाँ ही ठूँस ली और गप्पू सीधा पहुँचा गोलगप्पों के थाल के पास और लपक कर चार - पाँच में आलू भर खा डाले. 
अचानक से हमें एक बदमाशी सूझी! हमने गोलगप्पे के पानी में हरी मिर्च की चटनी डाल दी और उसे सूपर तीखा बना दिया. इतना तीखा की कानों से धुआँ निकालने की गैरंटी हमारी थी. ना, ना सारे पानी में नहीं पर जो अलग से रखा हुआ था. इससे पहले की कुछ समझ पाते दादी रसोई में आयीं और बोली, “ मेहमानों ने खाया भी नहीं और तुम लोग पहले ही खाने आ गए. चलो, जल्दी से मदद करो और डाइनिंग टेबल पर सब समान रख कर आओ.” 
हम भी जल्दी- जल्दी समान लेकर चल पड़े और इस झपका- झपकी में सब कुछ अस्त - व्यस्त हो गया! अब गोलगप्पे के पानी के दो बर्तन, वो भी सेम टू सेम. टोटल कन्फ़्यूज़न!! समझ में ही नहीं आया की सूपर तीखा पानी कौन से वाले में है. क्या करे, बुद्धि देवी ने अपने द्वार बंद कर लिए थे और हम नन्हे - मुन्ने, मासूम उनके आशीर्वाद से वंचित ही रह गए. 
हम पलटे ही थे - तभी पिताजी की आवाज़ आयी, “चल, मोनू गोलगप्पे खाते हैं तब तक शगुन गर्म टिक्की ले आएगी.” दोनों चल पड़े टेबल के उस कोने पर जहां से गोलगप्पे उन्हें अपनी तरफ़ आकर्षित कर रहे थे. वो आगे बढ़े और यहाँ हमारे दिल की धड़कने तेज हुई, इतनी तेज की शायद दिल कूद कर हाथ में आ जाये.
एक तरफ़ से ये दोनों और दूसरी तरफ़ से बुआ और झरना मौसी- संकट, घोर संकट! “ ये लो जीजी तुम्हारे लिए.” बुआ ने गोलगप्पे के पानी की कटोरी मौसी को थमा दो. “ भैया, ये आप दोनों के लिए.”
तभी पिताजी बोले, “ याद हैं मोनू हम दोनों में गोलगप्पे खाने का कॉम्पटिशन होता था और हमेशा मैं ही जीतता था. चल, आज फिर से हो जाए!” ये कहते ही पिताजी टूट पड़े खाने के लिए! इस से पहले की हम कुछ कर पाते सूपर तीखे पानी की कटोरी में गोलगप्पे ने अंगड़ाई तोड़ते हुए डुबकी लगाई और फिर सीधे लैंड किया पिताजी के मुँह में! 
आँखों से अश्रु धारा, नाक से पानी और मुँह से धुआँ - एक मिनिट को तो लगा हमारे पिताजी नहीं कोई आग उगलता हुआ चायनीज़ ड्रैगन है! बस लम्बी पूँछ पटकनी बाक़ी है! 
आप मुझे ग़लत ना समझे मैं तो बस आँखों देखा हाल बता रहा था. पिताजी की ऐसी हालत देख मदन चाचा और झरना मौसी के हाथ मानो फ़्रीज़ हो गए और दोनों पिताजी को देखने लगे. बन्नो बुआ के हाथ का गोलगप्पा मुँह तक पहुँचा ही था पर उसने वहीं से रिवर्स टर्न ले अपनी लाने चेंज कर ली.

“ शगुन, पानी ले कर जल्दी आ!” दादी ने आवाज़ दी. इधर पिताजी - उधर हम समझ नहीं आया की क्या करे. किस तरह इस सिचूएशन से बाहर निकले. “ अच्छा हुआ झरना जीजी हमने गोलगप्पे नहीं खाये वरना कितनी बुरी हालत हो जाती. हमारा मुँह तो जलने से बच गया. ” बन्नो बुआ बोली.
मुँह में लगी हुई आग की तपिश थोड़ी कम होते ही पिताजी ने माँ को बोला, “ शगुन आज क्या मिर्ची मुफ़्त में आयी थी, जो इतनी सारी उड़ेल डाली?” इससे पहले की माँ कुछ कहती दादी बोल पड़ी, “ श्यामसुंदर, इस को कुछ मत बोल, मैंने ख़ुद पानी चखा था कोई तीखा ना था- बिलकुल बराबर था.” हम कोने में खड़े हो कर चुपचाप सारा फ़ैमिली ड्रामा देख रहे थे- सास बहू
की स्पेशल लविंग स्टोरी! 
“ छोड़ो भैया आज गोलगप्पे नसीब में नहीं थे पर कोई ना गर्मागर्म टिक्की और कचौरी ही सही. भाभी अगली बार आएँगे तो ज़रूर खायेंगे.” मदन चाचा बोले.

 हेलो! इक्स्क्यूज़ में !! आप फिर से टपकने वाले हो- इतनी मुश्किल से अभी भगाने का तरीक़ा ढूँढा था, फिर दिमाग़ की कसरत करवाओगे! ये बातें मन की मन में ही घूम रही थी इतने में दादी ने सबको हड़काया, “ चलो खाना ठंडा हो रहा है, शगुन के पीछे पड़ना छोड़ो और खाने के लिए चलो
दादी की बात मानो पत्थर की लकीर, कोई भी उनकी बात का विद्रोह नहीं कर सकता था.सब खाने में लिए टेबल पर पहुँच गए.

माँ बेचारी! सोच में पड़ गयीं की उनसे इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी.जैसे - तैसे खाना निबट गया और मेहमान अपने घर चले गए. हम लोग अपने कमरे आकर बैठ कर अपना होम्वर्क करने लगे पर मन में यह बात चुभ रही थी आज हमारी बदमाशी की वजह से माँ को फ़ालतू में ही सुनना पड़ा. तभी माँ अंदर आयी और बोली, “ अच्छा सच बताना की ये किस का काम था? मैं तुमको  नहीं डाँटूँगी पर मुझे से झूठ मत बोलना .” 

माँ का इतना कहना था कि हमारी आँखें भर आयीं और गला रुंध गया. 
“ सच में माँ हम तो सिर्फ़ चाचा -चाची और झरना मौसी को भगाना चाहते थे. सुबह से आप कितना काम कर रहीं थी. हमें क्या मालूम तीखा पानी पिताजी  ले लेंगे. हमारी वजह से आपको डाँट पड़ी. सॉरी माँ. वी लव यू.” ये कह कर हम माँ से लिपट गए .
सच जानिये ग़लती ऐक्सेप्ट कर के कितना हल्का फ़ील हो रहा था.
माँ ने हमारे आँसू पोंछे और हंसते हुए बोली, “ कोई बात नहीं. आगे से कुछ भी बदमाशी प्लान करो तो मुझे भी उसका हिस्सा बना लेना, खूब मज़ा आएगा. फिर से बचपन की यादें ताज़ा हो जाएँगी.”
“ और हाँ मुझे भी मत भूलना. मैं भी अपने जमाने का बदमाशियों का चैम्पीयन हूँ !” पीछे से पिताजी की भारी आवाज़ माँ की आवाज़ के साथ मिल गयी.

बरसात का वो दिन एक यादगार दिन बन गया और हमारी यादों की अल्बम का हिस्सा बन गया.

Monday, June 14, 2021

बचपन की मिठास

हमारे घर के पास के बहुत बड़ा पीपल का पेड़ था और बग़ल में सुरेश हलवाई की दुकान थी- एक तरफ़ विशालकाय कड़ाई में दूध उबलता रहता और दूसरी तरफ़ वो दुकान के साथ में रखे बेंचों पर बैठे ग्राहकों के लिए चाय बनाता रहता. उसकी दुकान बहुत बड़ी नहीं थी, एक लम्बी दुकान जिसकी पीछे की तरफ़ काँच की अलमारियों में खाने के बड़े-बड़े थाल रखे रहते थे.एक में नमकीन और दूसरे में मिठाई रखी होती- मूँग की दाल, दालमोठ, नमकपारे और काली मिर्च वाली मठरियाँ तो दूसरी अलमारी में बेसन और मोटी बूंदी के लड्डू, खोया बर्फ़ी, बेसन की बर्फ़ी, छेनामुरकी और गुड़पारे. सामान तो लिमिटेड था पर टेस्ट में बेहद ग़ज़ब था ! 

दुकान के इंटिरीअर्ज़ बहुत ही बेसिक थे- पीछे की दीवार पर बड़े -बड़े लकड़ी के फट्टे लगा कर सामान रखने का प्रबंध किया हुआ, वही साथ में चार बड़े आले थे जिन में दुकान की रोज़मर्रा की चीजें रखी हुई थी. ये तो दुकान का आगे का हिस्सा था अब चलिए पीछे की तरफ़- एक छोटा सा दालान जिसने में मैदा और चीनी की बोरियाँ, बड़ी-बड़ी कड़ाइयाँ, दूध के बर्तन और बड़ी- बड़ी परात जिसमें मठरी और नमकपारों के लिए मैदा गूँधी जाती थी . फिर आगे की तरफ़ एक  छोटा सा आँगन था जिसमें अक्सर बारिश का पानी भर जाता और बड़े भागौने कश्तियों जैसे फ़्लोट किया करते थे.


सुरेश की दुकान पर हमेशा भीड़ रहती थी, लोग चाय की चुस्कियों और मिठाई की मिठास में अपनी रोज़मर्रा की परेशानियों को भूल जाते थे, तो कभी बेस्वाद जीवन को कचौरियाँ खा कर चटपटा बना लेते थे. मंगलवार के दिन पवनपुत्र हनुमान के पास अपनी प्रार्थना शीघ्र पहुँचाने के लिए मीठी बूंदी का संग ढूँढ लेते, इम्तिहान में पास हए बच्चों की ख़ुशियाँ खोये की बर्फ़ी के साथ बाँट लेते, नये मेहमान के आगमन के बारे में बूंदी के लड्डू बाँट कर कर बता देते , कहीं जागरण और पूजा-पाठ होता तो लड्डू-कचौरी का छोटा डिब्बा सबकी डाइनिंग टेबल पर पहुँच जाता
, कभी किसी की सगाई की बर्फ़ी और कभी बस ऐसे ही जब कुछ मीठा खाने का मन होता! जीवन की हर छोटी-बड़ी ख़ुशियाँ सुरेश की दुकान के नमकीन और मीठे के साथ जुड़ी हुई थी- जब मन होता हर कोई अपनी ख़ुशियों को बाँट लेता और अपनी ख़ुशियों के दायरे को और बड़ा बना लेता.

अब हमारा चक्कर तो ऑल्मोस्ट हर दिन ही लग जाता था. “ जा भाग कर सौ ग्राम मूँग की दाल और खोये की बर्फ़ी ले आ, नई सड़क वाली नानीजी आने वालीं हैं” या “ तेरी मौसी आ रही है, जल्दी जा कर दालबीजी, नमकपारे और बेसन के लड्डू ले आ.” कुछ मिठाई का लालच कुछ मेहमान की आने की ख़ुशी हमें सुरेश की दुकान तक पहुँचा देती थी. ताज़ा बनी मिठाई को भला कौन मना करता है!


लेकिन देखिए समय कैसे बदल जाता है- पहले मिठाई जी भर कर खाते थे और पूरा-पूरा दिन खेलते और मस्ती करते थे. आज मिठाइयों की कमी नहीं पर अब सेहत का ध्यान रखना पड़ता है, आधा टुकड़ा बर्फ़ी खा लो तो मन में यही विचार कौंधता है, “ आज मीठा बहुत ज़्यादा हो गया, कल तीन किलोमीटर एक्स्ट्रा दौड़ना पड़ेगा.”


आज सब कुछ होते हुए भी बचपन की बेफ़िक्री नहीं है, रिश्तों में प्यार की मिठास नहीं है और आपस में तालमेल की चाशनी नहीं है, सिर्फ़ बेस्वाद, नीरस रोज़ की ज़िंदगी और बेहिसाब तनाव है !

Friday, April 16, 2021

वॉकमैन का वॉक आउट

परसों की ही बात है हमारे मोहल्ले में ऐसा हंगामा मचा की मैं आपको अब क्या बताऊँ! आप जानना चाहेंगे की मोहल्ले में ऐसा क्या बवाल हुआ जिसने उस दिन को अत्यंत हैपनिंग बना दिया ? चलिये, मैं आपको फ़्लैश्बैक में ले चलता हूँ! इतवार का दिन था घर के सारे काम स्लो स्पीड पर हो रहे थे- किसी को भी कोई काम करने की जल्दी नहीं थी. पिताजी सुबह से चार बार चाय पी चुके थे चौथी और टाइम्ज़ ओफ़ इंडिया चाटने में व्यस्त थे, दादी पापड़ और बड़ियाँ सूखा रही थी और साथ- साथ माँ को इन्स्ट्रक्शन भी देर रही थी,” अरी, ज़रा जल्दी-जल्दी हाथ चला, इन पापड़-बड़ियों के साथ आम की फाँके भी सुखानी है. धूप चली जाएगी तो ये सूखेंगी नहीं.” 

बन्नो बुआ अपनी सहेली के साथ फ़िल्म गयी हुई थी और हम लोग चारपाई पर सुस्ता रहे थे-बबलू चंदामामा पढ़ने में बिज़ी था, गोलू चारपाई की रस्सी को खींच-खींच कर निकाल रहा था और मैं- इन सबको को देखते हुए ये सोच रहा था की आज के दिन को मज़ेदार कैसे बनाया जाए.

कुछ तो किया जाए जिससे ये संडे फनडे बन जाए! इतने में शर्मा अंकल ने पिताजी को आवाज़ लगाई, “ क्या बात है भाईसाहब, अकेले -अकेले चाय पी जा रही है, एक कप हमारा भी बनता है.”  पिताजी ने उन्हें देखा और माँ को चाय बनाने के लिए बोला. इतवार के दिन अक्सर पिताजी के दोस्त घर पर चाय पीने के लिए टपक पड़ते थे और फिर दोपहर का खाना खा कर ही विदा होते थे.माँ से ज़्यादा तो हमें ऐसे मुफ़्तख़ोरों से चिड़ थे पर हम कुछ कह नहीं सकते थे. अब आ बैल मुझे मार में हमें बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी!अंकल और पिताजी पॉलिटिक्स पर डिस्कशन कर रहे थे और हमारी बोरियत बढ़ती जा रही थी. 

इतने में गली में कुछ शोर सुनाई दिया, हम तीनों लपक कर जाली के दरवाज़े पर लटक गए ताकि हम कोई भी ऐक्शन मिस ना करें. जा कर देखा तो कोई भी ना दिखायी पड़ा, हमें लगा शायद दूसरी तरफ़ से आया होगा तो अपना सा मुँह लेकर बरामदे में लगे झूले की तरफ़ चल दिए. चलो कुछ नहीं तो झूला ही झूल लेते हैं, अब टाइम तो पास करना है.इतने में टप्पू ने ज़ोर से आवाज़ लगायी, “ ओए, जल्दी आ तुझे कुछ  बताना है.” मैंने झट देनी झूले से कूद मारी और पहुँच गया जाली के दरवाज़े पर खड़े टप्पू मियाँ के पास.  “ क्या है? क्यों अपना गला क्यों फाड़ रहा है ?” मैंने  उससे पूछा. इससे पहले कि वो कुछ बताता, पीछे से मिंटू बोल पड़ा, “ देवेन के चाचाजी उसके लिए हॉंगकॉंग से वॉकमैन ले कर आए हैं, जल्दी चलो देख कर आते हैं.” मैंने झट से अपनी बाटा की नीली हवाई चप्पल पहनी और हम सब दौड़े देवेन के घर.


वहाँ का तो नजारा ही अलग था- मेला सा लगा हुआ था! मोहल्ले के सारे बच्चे वही पर जमा थे, एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख उचक-उचक कर वॉकमैन की एक झलक पाने के लिए. अबे! ऐसा क्या है जो सब के सब मरे जा रहे हैं देखने के लिए! हमें देखते ही देवेन ने इशारे से हमें आगे आने को कहा- हम सबको चीरते हुए, ना! ना! फिर से आप ग़लत सोचने लगे, हम बच्चों के बीच से निकलते हुए देवेन के पास पहुँचे तो आँखें खुली की खुली रह गयीं. नीले और सिल्वर रंग वाले सोनी वॉकमैन ने तुरंत ही हमें अपनी और आकर्षित कर लिया - इतना छोटा और बेरोकटोक म्यूज़िक का भंडार! हेड्फ़ोन कान में लगाओ और चलते- फिरते, उठते-बैठते, गिरते-पड़ते म्यूज़िक सुनते रहो! कितना मज़ा आता होगा ना.
हमें लगा देवेन हमें उससे गाने सुनने का एक चान्स देगा पर उस ने तो साफ़ इनकार कर दिया.” तुम सब जाओ अब मैं कुछ देर गाने सुनूँगा. शाम को पार्क में मिलते हैं.” हम सब  घर वापिस आ गए पर पूरे रास्ते सिर्फ़ वॉक मैन की बात ही करते रहे. माँ ने खाने के लिए बुलाया तो ये झूठ बोल दिया की हम देवेन के घर से बिस्किट और समोसे खा कर आए हैं. दिमाग़ में तो बस वॉक मैन ही वॉक कर रहा था!


हम लोग कमरे में औंधे पड़े देवेन के बारे में बतिया रहे थे अचानक खूब शोर सुनाई दिया और साथ में पकड़ो- पकड़ो की आवाज़ें! हम फटाफट आँगन की तरफ़ भागे तो देखते क्या हैं की दादी और माँ मनीषा काकी से बातें कर रही है और पिताजी गली के सारे लोगों के साथ खड़े हो कर जसजीत की छत की और ताक रहे हैं.

इतने में क्या देखते हैं की मुन्ना चाचा और उनके कुछ फ़्रेंड्ज़ लम्बी - लम्बी बांस की लाठियाँ ले कर हुर्र-हुर्र की आवाज़ें निकलने लगे. “ ये क्या हो रहा है? मोहल्ले के सारे लोग किस ख़ुशी में यहाँ जमा हैं? और ये मुन्ना चाचा ऐसी आवाज़ें क्यों निकाल रहे हैं?” प्रश्न अनेक पर उत्तर देने के लिए कोई भी इंट्रेस्टेड नहीं! इतने में समर आया और बोला, “ कांड हो गया भाई, कांड! अबे, कहाँ थे तुम लोग? सारी गली के लोग आ गए हल्ला सुन कर तुम तीनों पता नहीं कहाँ दफ़ा थे?” 

इससे पहले मैं कुछ पूछता या समर कुछ बताता दीपक काका ज़ोर से चिल्लाये, “ वो रहा लंगूर देवेन के वॉक मैन के साथ! जल्दी से सुषमा बुआ की छत पर किसी को भेजो उसे पकड़ने के लिए. सुधीर, तू ज़रा जा कर देख वो निकम्मे म्यूनिसिपैलिटी वाले अभी तक आए क्यों नहीं? जल्दी करो, टाइम मत वेस्ट करो.” 

हैं! ये क्या हुआ? जब हम देवेन के घर से लौटे थे तब तक तो सब ठीक था - ये कब हुआ ? लंगूर को गाना सुनने का चस्का कब से लगा?


सामने देखा तो देवेन खड़ा रो रहा था, अब उसे दिलासा देने का तो हमारा फ़र्ज़ बनता था. रोनी सूरत बना कर हम उसके पास पहुँचे तो वो हिचकियाँ लेते बोला, “जानते हो मेरे साथ कितना बुरा हुआ- तुम लोगों के जाने के बाद मैं छत पर जा कर म्यूज़िक सुन रहा था और संतरे खा रहा था. मैंने सोचा धूप में बैठा हूँ तो कुछ कॉमिक्स भी पढ़ने के किए ऊपर ले आता हूँ. अब मुझे क्या पता था की मेरी ये गलती मुझ को बहुत भारी पड़ेगी.” मैं कॉमिक्स ले कर जैसे ही वापिस आया तो क्या देखता हूँ की चारपाई के पास एक लंगूर बैठा जिस के हाथ में मेरा वॉक मैन है और उसकी दूसरी तरफ़ संतरे के छिलके. मैं तो एकदम घबरा गया और डर के मारे मैं ज़ोर से चीखा. लंगूर ने जैसे ही मेरी चीख सुनी, वो चारपाई से कूद कर मेरा वॉक मैन हाथ में ले कर छत की दूसरी ओर लपका. इससे पहले मैं कुछ कर पता वो लम्बी कूद में दो-तीन छतें फ़ांद कर भाग गया.”

अपनी रामायण सुनाने के बाद वो फिर से रोने लग गया. बात तो बहुत सैड थी पर हम लोग थोड़े कमीने टाइप्स थे- मन ही मन खुश हो रहे थे. ले बच्चू, तूने हमें गाने नहीं सुनने दिए ना अब भुगत उसका नतीजा! हमारा श्राप लगा है तेरे वॉक मैन को! कहना को मन तो बहुत कर रहा था पर ये बात हमारे मुँह पर कभी ना आयी. हम ने उसके साथ हमदर्दी जतायी और खड़े हो कर तमाशा देखने लगे. 

“अभी पिक्चर बाक़ी है मेरे दोस्त!” सोनू आकर मेरे कान में फुसफुसाया. मन में आया की उसके कान के नीचे एक बजा डालूँ पर सिचूएशन की डिमांड थी- की मेरे चुप रहने में भलाई है. इसलिए शराफ़त से खड़े हो कर देखने लगे की अब आगे क्या होगा.

तभी सुषमा बुआ की छत पर दो- चार आदमी नज़र आए. शायद, वो आदमी  म्यूनिसिपैलिटी वाले  थे जो लंगूर को पकड़ने आ गए थे. इस से पहले की कोई उससे पकड़ता लंगूर ने पवन पुत्र हनुमान की तरह लंका के उद्यान यानी हमारी गली में उपद्रव मचा दिया. एक छत से दूसरी छत पर धुले कपड़ों को नीचे गिराते हुए, सूखते पापड़ों पर पैर धरते हुए, अचार के मर्तबान लुढ़काते हुए महाशय पीपल के पेड़ की तरफ़ लपके. 

फिर वही हुआ जिसका डर था - इस लपका-लपकी में लंगूर ने वॉक मैन को फ़्लैट मैन बना दिया! पीपल की सबसे ऊँची डाल पर चढ़ कर उसने वॉक मैन को स्विंग कर के ऐसा फेंका की उसको धरती की धूल चटा डाली. किसी को इतना टाइम भी न दिया की कोई उसे पकड़ सके.
देवेन का वॉक मैन वापिस आया ज़रूर पर टुकड़ों में ! 

उसके कितने टुकड़े हुए ये तो मुझे याद नहीं पर देवेन की लापरवाही के लिए जो उसकी धुलाई हुई वो पूछिये ही मत. 

मियाँ लंगूर की मेहरबानी से देवेन की ज़िंदगी से वॉकमैन हमेशा के लिए वॉक आउट कर गया...

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...