अब वैसे तो बन्नो बुआ हमारी फ़ेवरेट नहीं थी पर ऐसे मौक़े पर वो हमारा साथ ख़ूब देती थीं। हम बच्चों के साथ वो भी बच्चा बन जाती थीं। हफ़्ते का सबसे स्पेशल दिन होता था वो जब हम सब शराफ़त से अपना स्कूल का काम कर लेते थे, माँ की रसोई के कामों में मदद कर देते थे और दादी से तो बिलकुल पंगे नहीं लेते थे। अब, दादी ही तो हमारे इस प्रोग्राम की फ़ंडिंग करती थी, तो फिर उनसे उलझने का कोई मतलब हो नहीं बनता था। चुपचाप जो -जो काम वे कहतीं हम कर देते थे और बेसब्री से घड़ी में सात बजने का इंतज़ार करते रहते।ऐसे मौक़े का फ़ायदा तो बन्नो बुआ भी ख़ूब उठातीं।"जल्दी जा और रचना के घर से मुझे पीली ऊन के दो गोले ला दे, वरना शाम को जाने के लिए देर हो जाएगी।" मन तो करता की ना कर दूँ पर मरता क्या नहीं करता। बुआ ने ही तो हम बच्चों को शाम को लेकर जाना है तो उन्हें भला कैसे नाराज़ कर सकते थे।आनन- फ़ानन रचना दीदी के घर से पीली क्या नीली ऊन के भी गोले ले आता! बस उसके बाद क्या इंतज़ार की लम्बी घड़ियाँ- हम सब कभी कहीं बैठते, तो कहीं लुढ़कते और यही सोचते रहते की साथ बजने में इतने टाइम क्यों लगता है।
फिर जैसे ही सात बजते हम सब तैयार हो कर बुआ के कमरे के बाहर खड़े हो जाते। बुआ जैसे ही हमें देखतीं तो बोलती,"इतनी जल्दी आ गए, अभी तो सात भी नहीं बजे भी नहीं!" हम भी पक्के बेशर्म, अंगद के पैर के जैसे उधर ही जमे रहते।फिर सारी सवारी तैयार हो कर बुआ के संग -संग निकल पड़ती और सीधे जा कर रूकती चौरसिया चाट भंडार पर। उसकी दुकान भले ही छोटी थी पर खाने का सामान देखते ही मुँह से लार टपकने लगती थी। ये बड़े-बड़े सूजी और आटे के गोलगप्पे, करारी पापड़ी, बढ़िया मूँग दाल की पकोड़ी ,गरमागरम आलू की टिक्की और चाट, नरम-नरम भल्ले,आलू की टोकरी, फलों की चाट और ना जाने क्या-क्या। हमारे लिए तो ये कुबेर के ख़ज़ाने से कम नहीं था। अब इतना सब सामने देख कर बहुत कन्फ़्यूज़न हो जाता की क्या खायें और क्या नहीं। फिर आपस में सलाह-मशवरा करके गोलगप्पे से प्रोग्राम को शुरू करते। गोलगप्पे भी ऐसे की जितने खाओ उतने कम, दही भल्ले एक्स्ट्रा सॉफ़्ट और मीठी सोंठ से भरपूर, ख़स्ता आलू की टिक्की के साथ मिलने वाली धनिए-पुदीने की चटनी तो इतनी स्वाद की प्लेट चाटने के साथ साथ डाँट भी खाते थे हम! इतना सब चखने-खाने के बाद पेट तो भर जाता था पर नीयत नहीं। बुआ से मनुहार करके मूँग की पकोड़ियों पर ऐसे झपटा मारते जैसे की कोई शेर अपने शिकार पर पंजा मारता हो- ख़स्ता पकोड़ियाँ पर तीखी हरी चटनी और मूली का लच्छा हमारे को रिझाने के लिए बहुत था!
कोई ऐसी चीज़ ना हो होती जो हम ना खाते -ये सोचते की अगर पेट ख़राब होगा तो बाद में देखा जाएगा अभी तो जी भर के खा लें।आज भी उन चीजों का स्वाद मुँह में आ जाता है तो बचपन की सारी बातें ताज़ा हो जाती हैं।
फिर जैसे ही सात बजते हम सब तैयार हो कर बुआ के कमरे के बाहर खड़े हो जाते। बुआ जैसे ही हमें देखतीं तो बोलती,"इतनी जल्दी आ गए, अभी तो सात भी नहीं बजे भी नहीं!" हम भी पक्के बेशर्म, अंगद के पैर के जैसे उधर ही जमे रहते।फिर सारी सवारी तैयार हो कर बुआ के संग -संग निकल पड़ती और सीधे जा कर रूकती चौरसिया चाट भंडार पर। उसकी दुकान भले ही छोटी थी पर खाने का सामान देखते ही मुँह से लार टपकने लगती थी। ये बड़े-बड़े सूजी और आटे के गोलगप्पे, करारी पापड़ी, बढ़िया मूँग दाल की पकोड़ी ,गरमागरम आलू की टिक्की और चाट, नरम-नरम भल्ले,आलू की टोकरी, फलों की चाट और ना जाने क्या-क्या। हमारे लिए तो ये कुबेर के ख़ज़ाने से कम नहीं था। अब इतना सब सामने देख कर बहुत कन्फ़्यूज़न हो जाता की क्या खायें और क्या नहीं। फिर आपस में सलाह-मशवरा करके गोलगप्पे से प्रोग्राम को शुरू करते। गोलगप्पे भी ऐसे की जितने खाओ उतने कम, दही भल्ले एक्स्ट्रा सॉफ़्ट और मीठी सोंठ से भरपूर, ख़स्ता आलू की टिक्की के साथ मिलने वाली धनिए-पुदीने की चटनी तो इतनी स्वाद की प्लेट चाटने के साथ साथ डाँट भी खाते थे हम! इतना सब चखने-खाने के बाद पेट तो भर जाता था पर नीयत नहीं। बुआ से मनुहार करके मूँग की पकोड़ियों पर ऐसे झपटा मारते जैसे की कोई शेर अपने शिकार पर पंजा मारता हो- ख़स्ता पकोड़ियाँ पर तीखी हरी चटनी और मूली का लच्छा हमारे को रिझाने के लिए बहुत था!
कोई ऐसी चीज़ ना हो होती जो हम ना खाते -ये सोचते की अगर पेट ख़राब होगा तो बाद में देखा जाएगा अभी तो जी भर के खा लें।आज भी उन चीजों का स्वाद मुँह में आ जाता है तो बचपन की सारी बातें ताज़ा हो जाती हैं।
Very nice. Makes me nostalgic. Very well expressed
ReplyDeleteThanks a lot. Appreciate it.
ReplyDeleteहमें हमारा रामकरिशं मिशन के साथ खड़ा चाट वाले की याद दिलादि. हमारी टोली मिशन में आरती के बहाने छुप के चाट खाने जाते थे । आपका लेख पड़कर बहुत मज़ा आया। बिलकुल चटपटी चाट की तरह।
ReplyDeleteThanks Amla. A small effort to relive the innocent childhood once again.
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