हर मंगलवार का हम बेसब्री से इंतज़ार करते थे - शायद औरों के लिए नहीं पर हमारे लिए ख़ास होता था! स्कूल से आकर हम जल्दी- जल्दी अपना होम्वर्क ख़त्म कर लेते ताकि माँ के पास कोई बहाना ना हो हमें अपने साथ ना लेकर जाने का। वैसे तो माँ कभी मना नहीं करती थी पर होम वर्क के मामले बेहद स्ट्रिक्ट थी - अगर काम नहीं करा तो मतलब हमारी हर ऐक्टिविटी निषेध। मंगलवार का दिन दादी का भी ख़ास होता था, वे भी माँ के साथ मिलकर जल्दी से खाने की सारी तैयारी कर लेती। बन्नो बुआ को भी ना चाहते हुए काम करना पड़ता, अब दादी के आगे किसी की भी नहीं चलती थी। "ज़रा जल्दी -जल्दी हाथ चला, काम के वक़्त इतनी ढीली पड़ जाती है, घूमने-फिरने में नम्बर एक।पता नहीं इसकी कामचोरी की आदत कब जाएगी!" बुआ को डाँट पड़ता देख हमें बड़ा मज़ा आता।
शाम को चार बजते ही दादी माँ को हिदायतें देना शुरू कर देती।"जल्दी- जल्दी काम निबटा लेंगे ताकि समय से पहुँच जाएँ, बच्चों को भी तैयार होने को बोल देना वरना घर से निकलने में ही तुम सब लेट हो जाओगे।" अब दादी का हुकुम सर आँखों पर।अब आप सोच रहें होंगे की कोई बहुत बड़े इवेंट के लिए हम सब तैयारी कर रहे होंगे पर उन दिनों तो ये भी एक इवेंट जैसे ही था। हम सब झटपट तैयार हो कर जाली के दरवाज़े पर लटकना शुरू कर देते। उधर दादी,माँ,बुआ सब आनन-फ़ानन अपना काम ख़त्म कर आ जाती और फिर हम सब चल पड़ते अपनी मंज़िल की और। घर से निकलते ही सबसे पहले मिलती चीकू की दादी- जो एक नम्बर की बातूनी। जहाँ दादी को देखा बस वहीं शुरू हो जाती अपने घर के किस्से-कहानियाँ सुनाने के लिए और मंगला चाची को तो अपनी बहू की बुराई करने में सबसे ज़्यादा आनंद मिलता। शिल्पा दीदी बुआ को अपनी कॉलेज की बातें सुनाती और दोनों एक दूसरे के साथ ख़ूब खुसर-पुसर करती। दीपा काकी और माँ अपनी घर -गृहस्थी के बातें करती चलती। और हम सब पूरे रास्ते मस्ती करते चलते, कितना मज़ा आता था!
दूर से मंदिर का केसरिया झंडा दिखाई देते ही दादी हमें बोलती, "जाओ फटाफट जाकर लाइन में लग जाओ, नहीं तो हनुमानजी के ठीक से दर्शन नहीं हो पाएँगे, बहुत भीड़ हो जाएगी।"
दादी का ये कहना और हमारी टोली जा कर लाइन में लग जाती। धीरे-धीरे खिसकते हुए हम आगे बढ़ते, पर भगवान के दर्शन से ज़्यादा हम प्रसाद में मिलने वाले बूंदी के लड्डू का इंतज़ार होता। शायद बचपन से ही हमारी लाइफ़ के फ़ण्डे कुछ ज़्यादा क्लीयर थे! भगवान के आगे हाथ जोड़, पंडितजी से टीका लगवा और प्रसाद में लड्डू पाकर हम अपने आप को किसी से कम नहीं समझते।
शायद इसी तरह दादी ने हमारा भगवान के साथ कनेक्शन बना दिया- लड्डू तो सिर्फ़ एक बहाना था!
शाम को चार बजते ही दादी माँ को हिदायतें देना शुरू कर देती।"जल्दी- जल्दी काम निबटा लेंगे ताकि समय से पहुँच जाएँ, बच्चों को भी तैयार होने को बोल देना वरना घर से निकलने में ही तुम सब लेट हो जाओगे।" अब दादी का हुकुम सर आँखों पर।अब आप सोच रहें होंगे की कोई बहुत बड़े इवेंट के लिए हम सब तैयारी कर रहे होंगे पर उन दिनों तो ये भी एक इवेंट जैसे ही था। हम सब झटपट तैयार हो कर जाली के दरवाज़े पर लटकना शुरू कर देते। उधर दादी,माँ,बुआ सब आनन-फ़ानन अपना काम ख़त्म कर आ जाती और फिर हम सब चल पड़ते अपनी मंज़िल की और। घर से निकलते ही सबसे पहले मिलती चीकू की दादी- जो एक नम्बर की बातूनी। जहाँ दादी को देखा बस वहीं शुरू हो जाती अपने घर के किस्से-कहानियाँ सुनाने के लिए और मंगला चाची को तो अपनी बहू की बुराई करने में सबसे ज़्यादा आनंद मिलता। शिल्पा दीदी बुआ को अपनी कॉलेज की बातें सुनाती और दोनों एक दूसरे के साथ ख़ूब खुसर-पुसर करती। दीपा काकी और माँ अपनी घर -गृहस्थी के बातें करती चलती। और हम सब पूरे रास्ते मस्ती करते चलते, कितना मज़ा आता था!
दूर से मंदिर का केसरिया झंडा दिखाई देते ही दादी हमें बोलती, "जाओ फटाफट जाकर लाइन में लग जाओ, नहीं तो हनुमानजी के ठीक से दर्शन नहीं हो पाएँगे, बहुत भीड़ हो जाएगी।"
दादी का ये कहना और हमारी टोली जा कर लाइन में लग जाती। धीरे-धीरे खिसकते हुए हम आगे बढ़ते, पर भगवान के दर्शन से ज़्यादा हम प्रसाद में मिलने वाले बूंदी के लड्डू का इंतज़ार होता। शायद बचपन से ही हमारी लाइफ़ के फ़ण्डे कुछ ज़्यादा क्लीयर थे! भगवान के आगे हाथ जोड़, पंडितजी से टीका लगवा और प्रसाद में लड्डू पाकर हम अपने आप को किसी से कम नहीं समझते।
शायद इसी तरह दादी ने हमारा भगवान के साथ कनेक्शन बना दिया- लड्डू तो सिर्फ़ एक बहाना था!
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