Sunday, October 29, 2017

छुट्टियों का मतलब

वो गरमियों के लम्बे-लम्बे दिन वैसे तो बहुत भारी लगते थे पर जब हम सब साथ होते तो उतने ही मज़ेदार भी हो जाते थे।कितनी बेसब्री से हम पंद्रह मई का इंतज़ार करते थे- क्योंकि वो हमारी गरमियों की छुट्टियों का सबसे पहला दिन होता था।हमारी प्लानिंग होती की ख़ूब देर तक सोएँगे और आराम से दोपहर तक उठेंगे, पर यही हमारी सबसे बड़ी भूल भी होती।सुबह-सुबह दादी की आवाज़ कानों की शांति भंग कर देती,"कंबख़्तों दिन भर सोते रहोगे क्या ? छुट्टियों का मतलब यह नहीं की सारे दिन बिस्तर तोड़ते रहो, जाओ जल्दी से नहाने जाओ वरना पानी चला जाएगा !"

अब दादी को कौन समझाए की छुट्टियों का मतलब है देर से उठना, आराम से नहाना, अपनी मनपसंद चीज़ें खाना, खेलना और ख़ूब मौज -मस्ती करना।एक तरफ़ दादी और दूसरी तरफ़ बन्नो बुआ! हमें घर पर देखते ही उनके सभी कामों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त तैयार हो जाती।"तू कम्मो के घर जाकर नई फ़िल्मी दुनिया ले आ और आते आते शगुन के यहाँ से उसका लाल दुपट्टा ले आना, भूलना मत।" अब बुआ से कौन मगजमारी करे, इससे पहले के वो कोई और काम बताए हम चुपचाप वहाँ से निकल लेते।


तैयार हो कर हम गली में निकलते तो वहाँ कोई नहीं दिखता- होता भी कैसे! एक सिर्फ़ हम ही है जिनके घर में उन्हें सुबह देर तक सोने नहीं दिया जाता है, बाक़ी तो बारह बजे से पहले सो कर उठते भी नहीं। ख़ुद पर कितना तरस आता था पर क्या करे- रहना भी तो इसी घर में था। थोड़ी देर धूप में धक्के खा कर आते तो वहाँ से माँ की आवाज़ आती, "छुट्टियाँ शुरू हो गयी और शुरू हो गयी इनकी आवारागर्दी।बस दिन चढ़ते ही गली में घूमना चालू कर दिया।इतना भी नहीं होता की माँ की कोई मदद कर दें ।"

हे भगवान यह गरमियों की छुट्टियाँ तो हमारे जी का जंजाल हो गयीं हैं जिसे देखो वो ही पेनल्टी कॉर्नर से फ़्री किक मार रहा है।

ग़लती से यदि हम रसोई में दाख़िल हो गए फिर तो जैसे माँ के रडार पर आ गए। एक बार दुश्मन जहाज़ भी बच कर निकल सकता है पर माँ की तेज़ निगाहों से बचना, नामुमकिन।"अब समझ आया की पानी की बोतलें कौन ख़ाली रख कर भाग जाता है।और वो फ़्रीज़र में से किसने बर्फ़ निकाली थी? ट्रे में पानी तो मेरी माँ भर कर रखेगी ना। तुम तो सारे दिन बस ऊधमबाज़ी किया करो।" पानी पीना भी एक दंडनीय अपराध हो जाता था।लेकिन हम कौन से कुछ कम थे, जब मौक़ा मिलता पानी के बजाय चुपके से रसना या ऑरेंज स्क्वॉश पी कर भाग जाते- पर हम सारी कारस्तानी पकड़ी जाती। जब जगह-जगह टपके हुए स्क्वॉश पर चींटियों की लाइन मार्च पास्ट कर रही होती तो उसके बाद होता हमारा कोर्ट मार्शल!

दिन की दिक़्क़तों को झेलते हुए शाम तक पहुँचते तो पिताजी से सामना जाता।"सारे दिन ख़ूब मस्ती करी होगी, अब जाओ थोड़ी पढ़ाई कर लो। छुट्टियों का मतलब ये नहीं की किताबों को हाथ ही मत लगाओ, वरना स्कूल खुलते ही इम्तिहान में फ़ेल हो जाओगे।"

हम तो पूरी गर्मियाँ यह समझते रह जाते की सही मायने में छुट्टियाँ कहते किसी हैं!

Tuesday, October 24, 2017

दिलों के तार

वैसे तो ऐसा रोज़ रोज़ नहीं होता था पर जिस दिन होता था उस दिन तो हम सारे कितने ज़्यादा ख़ुश हो जाते थे। हम ही क्या गली-मोहल्ले के सारे बच्चे मानो ख़ुशी से झूम उठते थे।अब ऐसा अवसर रोज़ ही थोड़े आता था कि माँ कहे, "बंद करो ये किताबें और जाओ जाकर बाहर खेलो!" आप भी चकरा गए ना! पर हमारे साथ ऐसा सिर्फ़ उस दिन ही होता था। वैसे तो हमारे कानों पर जूँ भी ना रेंगती थी पर जैसे ही माँ की आवाज़ सुनते तुरंत अच्छे बच्चों की तरह अपनी कापी-किताबें समेट कर अंदर रख देते थे।चेहरे से इतनी मासूमियत टपकती की नन्हें- मुन्ने फ़रिश्ते से जान पड़ते थे।बिलकुल गीता प्रेस की पुस्तकों के अच्छे बालकों जैसे!

जैसे घर की दहलीज़ पर पाँव रखते, वैसे ही बन्नो बस आवाज़ लगाती,"ऐ बंटू, कहाँ जा रहा है? अब जाते-जाते मेरा एक काम कर जा, मुझे ज़रा एक गिलास बरफ़वाला पानी दे जा !" बुआ को भी चैन नहीं है, घर से निकलते हुए टोकना बहुत ज़रूरी है।बिजली की फुर्ती से पानी पकड़ा कर ऐसे भागते की पीछे मुड़ कर भी ना देखते। बुआ का क्या भरोसा, शायद दो -चार और काम बता दे!

जैसे ही गली में एंट्री मारते, पता चलता सारे के सारे बच्चे वहीं जमा हैं और अलग- अलग खेल खेलने की योजना बना रहे हैं। हम फ़टाक से पहुँच जाते ताकि हम अच्छे खिलाड़ियों वाली टीम में शामिल हो सकते।अब फिसड्डी टीम में कौन होना चाहता है- जहाँ सब के सब ढोपरशंख जमा हो। बढ़िया टीम होगी तो हर खेल में बाज़ी मार सकते हैं -फिर चाहे खो -खो,मारम -पिट्टी,पिट्ठू ,लुका-छिपी या ऊँच-नीच का खेल ही क्यों ना हो।टीम तो सॉलिड ही होनी चाहिए बॉस, वरना मज़ा नहीं आता है! यहाँ हम अपनी जुगलबंदी में लगे होते वहाँ सब बड़े धीरे-धीरे घर से बाहर निकल कर एक दूसरे से बातें कर रहें होते।यह समय एकदम पर्फ़ेक्ट होता सभी आंटियों के लिए- अपनी सास की बुराई करने का, एक-दूसरे से रेसिपी माँगने का, नई फ़िल्म की कहानी जानने का और मोहल्ले की गॉसिप सुनने और करने का।अब हर दिन थोड़ी ही इतनी फ़ुर्सत होती है जब मानो ज़िंदगी थम सी जाए और सब धीमी गति से चले।

यह सब उस दिन,नहीं-नहीं उस शाम को होता था जब पूरे मोहल्ले की बत्ती चली जाती थी वो भी बिन बताए! आएगी कब वो तो सिर्फ़ विद्युत विभाग को ही मालूम होता था।पर इस बात से किसे फ़र्क़ पड़ता था - पूरा मोहल्ला एक बड़ा सा परिवार जैसे था।कहीं बातें, कहीं क़िस्से, कहीं कहानियाँ,कहीं बुराइयाँ, कहीं हँसी, कहीं रूठना और मनाना सब साथ-साथ चलता था। वो मिलजुल कर बैठना, वो अनगिनत चाय की प्यालियों के साथ देश की राजनीति पर चर्चा करना, वो शर्माजी के घर से आए गर्मागर्म समोसे उड़ाना, वो बबली चाची के हाथ के बने दही-भल्लों के साथ गॉसिप की चटनी परोसना।

तब बिजली के तारों से ज़्यादा दिल आपस में जुड़े हुए थे और आज, बिजली के तार तो जुड़ गए हैं पर दिलों की दूरियाँ बढ़ गयी हैं।

Wednesday, October 18, 2017

दिवाली

जैसे-जैसे दिवाली नज़दीक आती हम बच्चे बहुत ख़ुश होने लगते, आख़िर यह त्योहार था ही इतना स्पेशल! दादी और माँ बनवारी काका को बुला कर सारे घर के सफ़ाई करवाती।घर के कोनों में बने जाले हटवाना,आँगन की धुलाई, छज्जों पर पड़े पीपल के सूखे पत्ते हटवाना,धूल-धूसरित हुए रोशनदानों की सफ़ाई,पंखों पे जमी पिछले छह महीनो की गर्दी, खिड़कियों की जाली की सफ़ाई और ना जाने कितने काम। बनवारी काका काम में एकदम चुस्त थे - बिजली की फुर्ती से काम करते थे। पर उनकी इस बिजली को चलाने के लिए बस पाँच -सात कप चाय चाहिए होती थी! इस बात से दादी को बहुत ग़ुस्सा आता था।"कितनी ज़्यादा चाय पीता है ये मरा बनवारी।दूध का सारा ब्योंत ही ख़राब कर देता है।"

दिवाली के पंद्रह दिन पहले ही दादी सफ़ेदी वालों को बुलावा कर घर का टच- अप भी करवा देती थी।स्टोर से चूने के कनस्तर मंगवाती और अपने सामने ही उसमें नील मिलवाती- और यही रंग घर की दीवारों के मेकअप के काम में आता।बिलकुल बढ़िया,सस्ता, सुंदर और टिकाऊ! अब अगर हर घर कुछ कहता है तो हमारे घर की दीवारें ज़रूर मेरी दादी कंजूसी के बारे में बातें करती होंगी!


इनके बाद नम्बर आता घर के कबाड़ का- अख़बार, डालडा के ख़ाली डिब्बे, कनस्तर, स्कूल की पुरानी कापियाँ और किताबें,ऑरेंज स्क्वॉश और रूहफ़जा की बोतलें, बन्नो बुआ की ढेर सारी फ़िल्मी मैगज़ीन, माँ की सरिता और गृहशोभा और पिताजी की इंडिया टुडे। कबाड़ीवाले से मोलभाव करने में तो दादी का कोई सानी नहीं था।"ये क्या भाव लगा रहा,हमें क्या चीज़ें मुफ़्त में मिलती हैं? सही भाव लगा नहीं तो किसी और को दे दूँगी और मुझसे होशियारी करने की तो सोचियो भी मत। तराज़ू में बराबर से तोलना!" बेचारा कबाड़ वाला, सामान से ज़्यादा दादी की डाँट अपने साथ ले कर जाता।अब दादी के इस स्वभाव से तो हर कोई अच्छे से वाक़िफ़ था।
गोदरेज की भारी भरकम अलमारी को हिलाने के लिए तो कोई दमदार आदमी ही चाहिए रहता था।इसके लिए बुलाया जाता सुधीर चाचा को- वो पहलवान जो थे! जैसे ही चाचा अलमारी हिलाते हम फ़टाक से उसके पीछे चले जाते अपनी खोयी हुई चीज़ों को ढूँढने।जहाँ हमें अक्सर हमारे खोए हुए खिलौने मिल जाते और कभी- कभी कोई भटकती हुई चवन्नी या अठन्नी मिल जाती तो हमारी चाँदी ही हो जाती।

माँ के साथ बाज़ार जाने के लिए तो हम एवररेडी रहते- पता था वहाँ जा कर दिवाली की रौनक़ देखेंगे और यदि माँ का मूड अच्छा हुआ तो गोलगप्पे और आलू की चाट भी खाएँगे। मिट्टी के दीये,खिलौने,सुंदर से गणेश-लक्ष्मी, कंदील, रंग-बिरंगे काग़ज़ के झालारें ,खील पताशे, पटाखे और अपनी पसंद के कपड़े लेकर घर आते।दादी और माँ के हाथ के बने बेसन और बूंदी के लड्डू, मावे की बर्फ़ी, गाजर का हलवा, कचौरी,मठरी, नमकेपारे, गुझिया और दिवाली का स्पेशल खाना ही हमारी दिवाली को कितना जगमगा देता था...



Tuesday, October 17, 2017

फ़िल्मी चक्कर

अब ये कहानी कितनी फ़िल्मी है ये तो आप ही निश्चित करेंगे- मेरा काम है आपको बचपन की गलियों में एक बार फिर से ले जाना और प्यार में डूबी हुई यादों और क़िस्सों से मिलवाना।

उस दिन हुआ यूँ की घर आते-आते सोनू मिल गया।वो मेरी क्लास में नहीं पढ़ता था और मुझे से दो साल सीन्यर था। वो बिना बात का रौब बहुत झाड़ता था,पर बदमाशियों में मेरा गुरु भी था तो उसकी कुछ बातें मैं देखी -अनदेखी कर दिया करता था।हम सब सोनू को अपना हीरो मानते थे - अब उसके जैसा स्टाइलिश लड़का तो पूरे मोहल्ले में नहीं था। शाम को जब वो अपनी इस्त्री की हुई लाल टीशर्ट, नीली जींस और स्पोर्ट्स शूज़ में निकलता तो उसका रौब अलग ही पड़ता था।कभी - कभी जब वो चोरी से अपने पिताजी का बरूट नाम का पर्फ़्यूम लगा कर आता तो सारी लड़कियाँ उससे बात करने के मौक़े तलाशने लगती।

फिर एक तरफ़ हम जैसे थे जो बाबा आदम के ज़माने की पुरानी निक्कर और पुरानी क़मीज़ में ही घूमते थे। स्पोर्ट्स शूज़ तो दूर की बात हम तो भी हवाई चप्पल भी नहीं पहनते थे।सारा दिन नंगे पैर घूमना और घर आ कर दादी की डाँट खाना हमारा रोज़ का काम था। ऊपर से सरसों के तेल से महकते बाल, कोई लड़की हमारे पास फटकाना भी चाहती तो यह तेल की बदबू उससे हमसे कोसों दूर ले जाती।"सुनो तुम अपनी मम्मी से बोलो केओ कार्पिन का नया तेल आया है, तुम्हारे ले कर आए, उससे ना बालों में से बहुत अच्छी ख़ुशबू आती है ।" अब ग़लती से माँ के सामने ये ज़िक्र कर देते तो इतनी गालियाँ पड़ती की पूछिए मत।"कमबख़्त! सारा दिन लड़कियों के साथ घूमता रहता है। ये साज- शृंगार की बातें कौन बताता है तुझे? तुझे क्या ब्याह करने जाना है ?" मन तो होता की बोल दूँ की माँ अगर तू मेरे बालों में यह सरसों का तेल लगाती रही तो मुझे यक़ीन है की मैं कुँवारा ही मर जाऊँगा। इसकी भयानक बदबू तो किसी लड़की को कभी मेरे पास भी नहीं देती है।

पर पानी में रह कर मगर से बैर, अभी इतनी हिम्मत नहीं थी!

पता नहीं उस दिन माँ ने मुझे सोनू के साथ जाने की इजाज़त कैसे दे दी।अब फ़िल्म जाने के लिए पिताजी से तो पर्मिशन नहीं मिलती तो किसी तरह से माँ को पटा लिया। फ़िल्म देखने के लिए कितना फ़िल्मी ड्रामा करना पड़ा क्या बताऊँ! इमोशंज़ का भरपूर इस्तेमाल किया तब जा कर माँ मानी।यह क़िला फ़तह करने के बाद मैं झटपट तैयार होने चला गया।जैसे ही घंटी बजी मैं भाग कर पहुँचा तो देखा मुझ से पहले पिताजी ने ही दरवाज़ा खोल दिया है और सोनू से ज़्यादा मुझे तैयार देख कर हैरान हो गए।" सज-धज कर कहाँ जा रहा इस समय ?" मेरी तो जैसे बोलती ही बंद हो गयी। इतने में माँ भी वहाँ आ गयीं, पिताजी ने माँ को देखा और मैंने माँ को- मेरा ओवर कॉन्फ़िडेन्स तो देखिये मुझे लगा माँ सम्भाल लेंगी।"मुझे क्या देख रहा है, पता नहीं सोनू और ये क्या-क्या करते रहते हैं दिनभर। अब बता अपने पिताजी को की इसके साथ तू फ़िल्म देखने जा रहा है !"

माँ के डायलॉग ने तो मेरी ज़िंदगी की इस शाम का क्लाइमैक्स ही बदल डाला।उसके बाद पिताजी ने ऐसी धुलाई करी की मैंने फ़िल्म क्या फ़िल्मी सपने देखना भी छोड़ दिया!

Sunday, October 15, 2017

तोहफ़ा

आज सुबह से माँ का मूड ऑफ़ था- शायद पिताजी और माँ की लड़ाई हुई थी या शायद दादी से कहा सुनी, या बन्नो बुआ ने तानेबाज़ी की होगी- हमारी बुआ फ़िकरेबाज़ी में ज़रूरत से ज़्यादा तेज़ है! माँ से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। सोचा, स्कूल से वापिस आ कर स्थिति का जायज़ा लेंगे और तब सोचेंगे क्या करना है, चुपचाप बिना ड्रामा किए वहाँ से निकल लिये।
 

दोपहर को वापिस आए तो घर पर अजीब प्रकार की शांति थी - हमें लगा आज तो कोई ना कोई बड़ा कांड हो गया है! रसोई घर में देखा, वहाँ ना तो माँ थी और ना ही दादी।बन्नो बुआ के कमरे में देखा तो वो मज़े से ख़राटे भर रही थी। अब पूछे भी तो भी किससे, कुछ समझ नहीं आ रहा था। झटपट बैग रख कर, सीधे पहुँचे माँ के कमरे में, जहाँ कोई भी नहीं था। अब हमारे दिल की धड़कने तेज़ होने लगी, सोचा पिताजी को फ़ोन करने से पहले एक बार दादी के कमरे में झाँक लें वरना डाँट पड़ जाएगी। "बेवक़ूफ़, बिना देखे ही फ़ोन लगा दिया। कितना ज़रूरी काम कर रहा था। मैंने कहा था ना माँ और दादी छत पर ही होंगी!"

कमरे में दादी किताब पढ़ रहीं थी। उन्हें देखते ही हमारी जान में जान आयी। हमने माँ के बारे में ढेरों सवाल कर डाले। दादी ने हमें देखा और बोली, "ये क्या माँ -माँ लगा रखा है। दो घड़ी भी अपनी माँ को चैन नहीं लेने देते। जैसा बाप वैसे बच्चे!" पर ये उत्तर तो हमारे प्रशन से मेल नहीं खाता था। मन तो ये हुआ की अभी बोल दे , "दादी आप तो फ़ेल हो गयीं आपको तो सही उत्तर भी नहीं पता!" फ़ालतू की डाँट खाने की इच्छा नहीं थी, बस थोड़ी सी हिम्मत जुटा कर प्यार से पूछा, "अच्छा ये तो बताओ आख़िर माँ है कहाँ पर ?


हमारा तो यह पूछना था बस सरहद पार से बमबारी शुरू हो गयी। "वो बेचारी सारे दिन काम करती है। कोई भी उसकी मदद नहीं करता है, बस सारे हुकुम चलाते रहते हो। अब तेरे बाप को ही देख ले! निकम्मा आज अपनी शादी की सालगिरह ही भूल गया। तेरी माँ के लिए ना तो कोई गिफ़्ट लाया और ना ही उसे विश करा। अब वो नाराज़ नहीं होगी तो क्या ख़ुश होगी। बस इसी वजह से आज सुबह से उसका मूड बहुत ख़राब था। अभी गयी किसी काम से बाहर, थोड़ी देर में आ जाएगी।"

ओ तेरी! तो यह मामला है। वहाँ से खिसक कर सीधे पिताजी को फ़ोन लगाया और सारी बात बताई। पिताजी शाम को जल्दी घर पहुँचे तो माँ हैरान रह गयी। थोड़ा प्यार से, थोड़ा मनुहार से पिताजी ने माँ को मना लिया और वायदा किया कि आगे से ऐसी ग़लती कभी ना करेंगे।

प्यार और  अपनेपन की गरमाहट बड़ी बड़ी मुश्किलों को आसान कर देती है...



Friday, October 13, 2017

प्यार की गरमाई

कार्तिक मास के आते ही हल्की- हल्की गुलाबी ठंड पड़ने लग जाती थी।यहाँ दिवाली गयी और वहाँ सर्दियाँ दरवाज़ा खटखटाने लगती। मगर माँ और दादी की तैयारी तो उससे पहले से शुरू हो जाती थी। रज़ाइयों को निकलवा कर उन्हें धूप लगाना, गद्दों की धुनाई करवा के उन्हें फिर से भरवाना,कंबलों को खोल-खोल कर चेक करना कहीं उसे कोई कीड़ा तो ख़राब नहीं कर गया। यदि एक भी छेद दिख जाता तो बस दादी शुरू हो जाती, " कितनी भी गोलियाँ डाल दो, ये मरे कीड़े मरते ही नहीं!" और हम इस सोच में पड़ जाते की अगर कीड़े मरे हैं तो दोबारा कैसे मर सकते हैं!

ख़ैर, आगे चलते हैं- इनके सब के बाद नम्बर आता हमारे सब के ऊनी कपड़ों का।पिताजी के मोटे-मोटे काले और भूरे ऑफ़िस पहन कर जाने वाले ओवर कोट।कभी-कभार शादियों में दर्शन देने वाली शेरवानी, ज़रूरी मीटिंग में जाने वाला काला कोट। पिताजी की शादी का सूट जो हर साल धूप खा कर वापिस बक्से में चला जाता था। अब उसे बाहर निकला भी क्यों जाता था वो हम सबकी समझ से परे था। दादी और माँ के हाथ के बुने हुए आधी और पूरी बाज़ू के स्वेटर- जो उन्होंने सरिता और गृहशोभा के विशेष बुनाई अंक से देख कर बनाए होते या फिर कविता आंटी से डिज़ाइन माँग कर।


फिर आते हमारे कपड़े, मेरा लाल -काले चेक वाला कोट जो मामा अमेरिका से लाए थे। माँ के हाथ के बनाए मफ़्लर, बंदर टोपी और दस्ताने- जो हमें क़तई पसंद नहीं थे।सुंदर- सुंदर पैटर्न वाले स्वेटर, हरे रंग का कोट जिसकी जेबों में से अक्सर मूँगफली के छिलके मिलते थे और कभी -कभी चवन्नी या अठन्नी भी मिल जाती थी! बाहर आने जाने वाले स्वेटर जो सिर्फ़ मैं सिर्फ़ बाहर ही पहन कर जाता था ।"कितनी बार मना किया है बाहर आने जाने वाले कपड़े घर में मत पहना कर, मगर ये निकम्मा तो सुनता ही नहीं है!" माँ तो जाने कितनी बार ग़ुस्सा करती थी मगर उनकी नज़रे बचा कर मैं अपना फ़ेवरेट स्वेटर अक्सर पहन लेता था। स्कूल का कोट, स्वेटर और टाई- कितने ध्यान से रखती थी माँ ये सब कपड़े। ड्राई क्लीनर के बैग में से निकले भी ना जाते थे और सीधा अंदर रखे जाते ताकि अगली सर्दियों तक कपड़ों की प्रेस ख़राब ना हो।
 

फिर माँ, दादी और अपने कपड़ों के लिए जगह बनाती- दादी के शॉल जो कभी दादाजी शिमला से लाए थे, उनके हाथ के बने ऊनी बलाउस, स्वेटर और उनके दो जोड़ी मोज़े। मजाल है की दादी के मोज़े कोई पहन सके, ग़लती से कभी अगर बन्नो बुआ पहन लेती तो कितनी डाँट लगाती थी दादी।" कमबख़्त,बिना चप्पल के घूमती रहती है दिन भर।अपने मोज़े ख़राब तो कर दिए,अब मेरे भी ख़राब कर देगी!" बहुत सहेज कर रखती थी दादी अपनी चीज़ों को- कहती थी उन में उनकी यादें और बातें छिपी हुई हैं !

माँ भी अपने कपड़ों के लिए जगह बनाती - उनका लाल और भूरा कोट जो नानाजी कभी उनके लिए विलायत से लाए थे और माँ की छुटपन की यादें जुड़ी थी उससे। इसलिए शायद पिताजी से ब्याह करके वो अपनी उन यादों को अपने साथ ले आयी थी। अब तो वो कोट उन्हें नहीं आता था पर हर साल कोट सर्दियों की धूप सेकने के लिए बाहर ज़रूर आ जाता था । माँ का वो बादामी स्वेटर तो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद था - जब माँ उसे अपनी बनारसी साड़ी के साथ पहनती थी तो बहुत सुंदर दिखती थी। कितना साथ निभाया था इस स्वेटर ने- कम्मो मौसी के ब्याह में गया, दीप्ति दीदी की सगाई में गया, बंटू मामा की नए साल की पार्टी में भी और तो और बन्नो बुआ के साथ भी गया उनके कॉलेज की पार्टी में! कितने सारे शॉल थे माँ के पास- हल्के सफ़ेद रंग का पश्मीना शॉल जो पिताजी माँ के लिए कश्मीर से लाए थे, बारीक कढ़ाई वाला गुलाबी शॉल, बॉर्डर वाला काला शॉल, घर में ओढ़ने वाले शॉल और ना जाने कितने और। 


ये सारे गरम कपड़े बीते सालों की यादें और प्यार की गरमाई से भरपूर थे। इसलिए जब भी हम इन्हें पहनते तो अपनेपन की गरमाहट हमें पूरी सर्दी ठंड से बचा कर रखती...

Wednesday, October 11, 2017

गरमियों का मनोरंजन

हमारे दादजी बहुत बड़े वक़ील थे इसलिए घर पर अक्सर बहुत सारे लोग आया जाया करते थे।ऐसा जान पड़ता था की घर, घर ना हो कर एक धर्मशाला है- जिसे देखो वो ही चला आ रहा है, कभी कोई एक दिन रुकता तो कोई दो दिन।कुछ तो हफ़्ता-दस दिन से पहले दरवाज़े की शक्ल भी ना देखते थे ।अब ऐसे मुफ़्तख़ोरे हमें बहुत बुरे लगते पर हम कुछ नहीं कर भी नहीं सकते थे।गरमियों की छुट्टियाँ चल रही थी और हम सब घर में में क़ैद! दादी ने बाहर खेलने के लिए बिलकुल मना कर दिया था।" नाक में दम कर रखा तुम बच्चों ने।अब इतनी गरमी में खेलने जाओगे,लू लग जाएगी।"

हम जब कमरे की तरफ़ जाने लगे तो देखा की बग़ल वाले कमरे में राजू मामा सो रहे हैं।यह कब आए! शायद देर रात को आए होंगे।हमें इन मामाश्री से कोई ख़ास लगाव नहीं था- अव्वल दर्जे के मुफ़्त खोर और कंजूस थे! इनकी जेब से कोई चवन्नी भी नहीं निकलवा सकता था। उन्हें देखते ही हमारे दिमाग़ की क्रॉस- वाइरिंग में एक स्पार्क उठा! शैतान खोपड़ियाँ ऐक्टिव हो गयीं! चलो, आज दोपहर के मनोरंजन का प्रबन्ध तो हो गया।अब क्या और कैसे करना है, वो सोचना पड़ेगा।

सबकी नज़रें बचा कर हम उस कमरे में दाख़िल हुए जिसमें श्रीमान राजू मामा आराम फ़रमा रहे थे।मई की तपती गरमी में घरघराते पंखे को मामा की ख़र्राटों का साथ मिल गया था- दोनों जुगलबंदी कर रहे थे! यही सबसे बढ़िया मौक़ा था।मैं लपक कर माँ के कमरे में गया। उनकी नज़रें बचा कर जैसे ही दराज़ खोला, माँ एकदम बोली, "क्या ढूँढ रहा है? तेरे तो कोई सामान यहाँ नहीं है!" तुरंत हथेली पर सरसों जमाते हुए कहा," माँ, बन्नो बुआ को कहीं जाना है, आपकी लिप्स्टिक मँगवाई है।"



फिर वहाँ से सीधा गया मामा के कमरे में और अपनी कलाकारी शुरू कर दी। दीपू ने मामा को बड़ी से लाल बिंदी लगाई, चुन्नू ने काजल, बिट्टू ने माँ की लाल लिप्स्टिक और मैंने उनके बाल सँवार के दो प्यारी -प्यारी चोटियाँ! मामा नींद के आग़ोश में थे और हमारी करस्तानी का उनको कुछ पता भी ना चला।हम जैसे ही कमरे इस निकले, इतने में दादाजी ने राजू मामा की ज़ोरदार आवाज़ लगाई ।मामा घबरा कर उठे और बिना अपनी शक्ल सूरत और कपड़े सँवारे पहुँचे दादाजी के कमरे में।दादाजी ने जैसे उन्हें देखा तो बोले,"यह क्या हुलिया बनाया है? कोई नौटंकी चल रही है क्या?"

मामा ने आइना देखा तो भौचक्के रह गए! वो हमारी इस करस्तानी को जान गए।
उनके बाद आया हमारा नम्बर।हाजरी के बाद, सीधा सज़ा ही सुनाई गई।अपना केस लड़ने का मौक़ा भी ना दिया गया हम मासूमों को !

Tuesday, October 10, 2017

मेहमानवाज़ी

हम बच्चे मेहमानों का बहुत ही बेसब्री से इंतज़ार करते थे. ना, ना हमारे लिए वो "अतिथि देवो भव:" नहीं होते थे परन्तु बढ़िया खाने का संकेत होते थे! सुबह दादी और माँ चाय की चुस्कियाँ लेते हुए लम्बे - लम्बे डिस्कशन करती और शाम की दावत का मेन्यू डिस्कस करती. किराने की दुकान से क्या, कब और कितना माँगना है - उसका गणित तो सिर्फ़ यह दोनों ही अच्छे से जानती थी! हम सब अक्सर रसोईघर के आस पास ही टंगे पाए जाते थे क्योंकि पकवानों की ख़ुशबू हमें ऐसे खींचती जैसे पतंग को डोर!

शाम तक रसोईघर से मज़ेदार पकवानों की ख़ुशबू पूरे आँगन को महका रही होती और हम बच्चे जाली के दरवाज़े पर लटक- लटक कर मेहमानों की राह देख रहे होते. उत्सुकता उनसे मिलने की नहीं होती थी पर यह जानने की रहती थी कि वे हमारे लिए किया ले कर आएँगे.हमारे यहाँ हर टाइप के मेहमान आते थे- कुछ महा कंजूस जो मुर्दा से दिखने वाले एक दर्जन केले लाते थे, कुछ गिनती के छह सेब,कुछ तो नुक्कड़ वाले हलवाई की बेस्वाद बर्फ़ी, लड्डू या ढाई सौ ग्राम बूंदी।उनकी कोशिश यही रहती थी की सबसे सस्ती मिठाई ही घर ले कर आयें और ऐसे मेहमान हमें बिलकुल पसंद नहीं थे!हमें तो वो मेहमान पसंद थे जो हमारे लिए बिस्कुट,केक और बढ़िया खाने का समान लाते थे।

जैसे ही गली के नुक्कड़ पर वे दिखते, हम ख़ुश हो जाते और भाग कर घर में उनके आने की घोषणा कर देते.मेहमानों के कमरे में बैठते ही माँ और दादी खाने की तैयारी शुरू कर देती और पिताजी उनसे बातें।हम इस ताक में रहते के कब वो अपने थैले में से हमारे लिए समान निकाल कर देंगे।मगर,उनके हाथ तो थैले तक पहुँचते ही नहीं थे! हम भी ढीठ!वहाँ ही घूमते रहते इस उम्मीद में की शायद अब हमें अंदर बुला ले। 

"भुक्कड़ों की तरह वहाँ टंगे मत रहना!" माँ ने यह बात सुबह ही समझा दी थी।पर हम तो वहीं टंगे हुए थे, हमें डाँट खाने की आदत जो थी!

खा- पी कर जैसे ही वे दरवाज़े की ओर,तो हम कमरे की ओर- हम गिफ़्ट और खाने की ताक में! बिलकुल वैसे ही जैसे शेर अपने शिकार के तरफ़ बढ़ता है।इधर हमने जैसे ही प्लेट में रखे समोसों की तरफ़ हाथ बढ़ाया, वैसे ही बन्नो बुआ की कड़क आवाज़ आयी," रुको ज़रा, अभी तुम्हारी ख़बर लेती हूँ।मेहमान गए नहीं की ये बदमाश आ गए !"

हाय री क़िस्मत! हमें तो सिर्फ़ बुआ की डाँट के चटकारे मिले, समोसे तो प्लेट पर यूँही धरे के धरे ही रह गये...

Monday, October 9, 2017

पिटाई की मिठाई

सुबह उठते ही जब गली में झाँका तो देखा बड़ी -बड़ी बल्लियाँ पड़ी हुई हैं, लाल-पीले रंग का तंबू लगाया जा रहा है, लाल कपड़े वाली ऐल्यूमिनीयम की कुर्सियाँ सलीक़े से रखी जा रही है और सब काम ख़ूब ज़ोरों-शोरों से चल रहा है।भाग कर माँ के पास पहुँच तो मेरी जिज्ञासा शांत करने की बजाय, माँ ने मुझे जल्दी से नहाने के लिए ऑर्डर दे दिया दिया।" जल्दी नहा ले, सामने वाली कविता का ब्याह है- उसके कुछ रिश्तेदार हमारे यहाँ आएँगे नहाने के लिए ." अरे भई, ब्याह उसका और जल्दी नहाऊँ मैं, यह कोई बात है क्या!"


नहा कर तैयार हुआ तो बंटू आ गया।" अबे कब से तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ, अब तक नहीं नहाया तू ? जल्दी चल मेरे साथ,पार्क के पास हलवाई कितनी बढ़िया -बढ़िया मिठाई बना रहे हैं ।" वहाँ तो एक अलग ही नज़ारा था - कहीं मोतीचूर के लड्डू बन रहे थे, कहीं गुलाबजामुन, तो कहीं पूरी -कचौरी का आटा तैयार किया जा रहा था, बड़ी -बड़ी कढ़ाइयों में ख़ुशबूदार पकवान बनाए जा रहे थे । हलवाई जल्दी -जल्दी अपना काम करने में लगे हुए थे।एक कोने में खड़े सिंह अंकल सबसे ज़्यादा परेशान दिख रहे थे- उनकी डाँट के बाद भी काम थोड़ा सुस्ती से हो रहा था।पर जैसे ही सिंह अंकल ने ही हमें देखा तो वही से चिल्लाए," तुम क्या करे रहे हो यहाँ पर? भागो यहाँ से! अगर कोई बदमाशी की तो टाँगे तोड़ दूँगा!"


हद हो गयी, हम तो सिर्फ़ नज़ारे का जायज़ा लेने आए थे, अंकल ने तो हमारी बेज़्ज़ती कर दी।अब हम तो ठहरे सबसे बड़े खिलाड़ी- अब कुछ ना कुछ तो चख के जाना ही था। लेकिन हर तरफ़ नज़रें ही नज़रें! बच कर निकला नामुमकिन ही नहीं ,मुश्किल भी था।मोटी तोंद वाले हलवाई के पीछे रखे थाल में सजे केसरिया बूंदी के लड्डू हमें इशारा करके अपनी तरफ़ बुला रहे थे, आँखों ही आँखों में उनके और हमारे बीच में ढेर सी बातें हो गयी थी! हमने भी ठान लिया था जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना! धीरे -धीरे करके हम दुश्मन छावनी में दाख़िल तो हो गए पर अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए यह निर्णय लिया की मेज़ के नीचे छिपे रहने में ही भलाई है।मौक़ा देख कर ही चौका लगाएँगे।


थोड़ी देर बाद ऐसा आभास हुआ की कुछ शांति सी है और हमारे लिए सही वक़्त भी। मेज़ के नीचे से हाथ लड्डू के थाल तक पहुँच तो गया, पर दिल्ली अभी दूर थी! इससे पहले की लड्डू हमारे मुख द्वार के तरफ़ अग्रसर होता, पिताजी के भारी हाथ ने हमें नीचे से ऊपर खींचा और लड्डू की जगह उनकी धुलाई से हमारा ऐसा मुँह मीठा हुआ की कविता की शादी में कोई मिठाई खाने के लायक ना रहे!

Saturday, October 7, 2017

रोज़ का खाना

हमारे यहाँ रोज़ वही नाश्ता तैयार होता था, जो हम सब को महा बोरिंग लगता था।
क्रीएटिविटी नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं थी! स्कूल ले जाने के लिए वही नमक-अजवाइन के पराँठे और निम्बू का अचार, बहुत हुआ तो ब्रेड और जैम ( वो भी सेब का !) या कभी -कभी मटर पुलाव।हमने शिकायत की तो दादी से कितनी बातें सुनने को मिली, बन्नो बुआ तो हमें बिगड़ैल कह कर बुलाने लगी और माँ का तो लगता था जैसे बल्ब ही फ़्यूज़ हो गया है।अब दिल की बात कहते भी तो किससे!

हम सोचने लगे की हमारे इस नीरस भोजन को हम कौन से रस से प्रेरित करें- ताकि यह मज़ेदार हो जाए।अब पिज़्ज़ा,पास्ता के बारे में तो हमें कुछ ज्ञात नहीं था।अजी, हमने तो इनके नाम भी अभी सुने हैं-उस समय घर में इसका ज़िक्र करते तो ज़रूर दादी के डंडे पड़ते। हम सब ने मिलकर सोचा की चलो सर्वे करते हैं की कौन कौन सी नई चीज़ें आयी हैं परचून की दुकान में, जो हमारे स्वाद के टक्कर की हैं।हम पहुँचे बंसल जनरल स्टोर - जहाँ काँच के जार में रखी हुई टोफ़ियाँ, कैरमल और ऑरेंज की गोलियाँ,बबल्गम और बिस्कुट हमें अपनी ओर आकर्षित करने लगे।

लेकिन हम तो कुछ और ही ढूँढने आए थे - इन छोटे-छोटे प्रलोभनो को ताक पर रख कर जैसे हम आगे पहुँचे, अंकलजी बोले,"पिंटू यह तेरे लिए रखी है, कुछ नया आया है मार्केट में। ट्राई करके तो बता कैसा है !" झट से उन्होंने मेरे हाथ में पीले रंग का एक पैकेट रख दिया।उसे घर जा कर खोला तो मैदा के लम्बे लम्बे गुच्छे, जिसे देखते ही दादी बोली, "कंबख़्तों ,यह क्या कीड़े से लिए हो? कल उस बंसल की जाकर ख़बर लूँगी, बच्चों को ख़राब चीज़ पकड़ा दी।"

अब उस पर लिखे निर्देश अनुसार हमने टुकड़े करके उसके संग आए मसाले के साथ उबलने रख दिया। "सिर्फ़ दो मिनिट", यही तो लिखा था मैगी के पैकेट पर! हम उबालते रहे यह सोच कर की यह तो अभी कच्ची है और पता भी ना चला की कब वह नूडलेस से खिचड़ी में तब्दील हो गयी है और हमारी जगह पतीले ने उसके स्वाद का आनंद भी ले लिया है।

और जो बची-कुची प्लेट पर आयी वो इतनी बेस्वाद कि उसे हमसे ज़्यादा कचरे के डिब्बे ने एंज़ोय किया...


Friday, October 6, 2017

बचपन का स्वाद

हम क्लास में आते ही सबसे पहले अपने- अपने लंच बॉक्स निकाल लेते थे. इसलिए नहीं क्योंकि हमें भूख लगी होती थी, पर इससे हमें एक दूसरे के डिब्बों में झाँकने का मौक़ा मिल जाता था. फिर सही पिक्चर सामने आती थी! कौन क्या लाया है- आलू का पराँठा,छोले चावल,जैम ब्रेड, नूडलेस, पूरी,कचौरी, इडली-डोसा, पोहा और ना जाने क्या-क्या आता था हमारे डिब्बों में!


जिसका खाना सबसे ज़्यादा मज़ेदार होता वो सबसे पहले सफ़ाचट होता. सबसे बोरिंग खाना सबसे आख़िर में.जिसके पास सबसे स्वादिष्ट खाना होता था वो बड़ी मुश्किल से मिल- बाँट कर खाने के लिए हाँ करता.अब सोचने की बात है की कौन अपना पसंदीदा खाना किसी और के साथ बाँटना चाहता है! पर कुछ महा कंजूस तो अपने खाने के डिब्बे को देखने भी नहीं देते थे और कुछ इतने दिलदार की अपना खाना ख़त्म होते देख ख़ूब ख़ुश होते। इसलिए ताकि वो जाकर कैंटीन से मज़ेदार, चटपटी चीज़ें खा सके।

कभी -कभी ऐसा भी होता की कोई अपना डिब्बा भूल जाता था- फिर क्या सब के सब परेशान हो जाते।खाने की घंटी बजते ही सब अपने -अपने डिब्बे लेकर उसके पास आ जाते।"तू आज खाना नहीं लाया क्या?कोई बात नहीं, ले मेरे में से खा ले "। फिर क्या तरह-तरह के खाने उसके सामने परोस दिए जाते - कोई उसे आलू का पराँठा देता,तो कोई इडली,पोहा,सैंड्विच,मठरी, नूडलेस, बिरयानी और ना जाने क्या -क्या। आख़िर दोस्त को भूखा कैसे 
रहने दें!



स्कूल बंद होने से पहले जिसके पास पैसे होते वो कैंटीन से समोसे और चिप्स लाता और फिर सब मिलकर खाते। बस में चढ़ने के पहले नुक्कड़ पर खड़े बूढ़े शर्माजी से आम पापड़, चूरन,खट्टी इमली,नारंगी और कोला गोली,राम लड्डू ख़ूब मज़े से खाते।


याद करता हूँ तो बचपन के इन चटकारों का स्वाद आज भी ज़बान पर ताज़ा हो जाता है!

झूठ के चार पैर

अब हम उसे किसी तरह से घर तो ले आए पर डर के मारे हम सब की जान निकल रही थी।सोच- सोच कर दिल डूबा जा रहा था की किसी को भी अगर भनक लग गयी तो हमारा क्या होगा! सबसे ज़्यादा डर तो हमें बन्नो बुआ का था पर हम ने ठान लिया था की उसे वापिस तो नहीं करेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए।और फिर जनाब जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना!

अब कहाँ रखेंगे, कैसे रखेंगे, किस की ड्यूटी लगेगी, कौन ज़िम्मेवारी लेगा जैसे अनगिनत प्रश्न हमारे दिमाग़ की स्क्रीन पर चमकने लगे।पर जनाब, यह कोई कौन बनेगा करोड़पति नहीं चल रहा था की जवाब दो और इनाम पाओ! उत्तर खोजना भी आसान नहीं था और फिर अपने पास ना तो कोई लाइफ़् लाइन,ना ही कोई ऑडीयन्स पोल और ना ही कोई फ़ोन-अ-फ़्रेंड!

ये कोई बहुत बड़ा नहीं पर छोटा, हल्का-फुल्का सा मसला था लेकिन उसका परिणाम बहुत बड़ा! हम सबने सोच - विचार करने में बहुत वक़्त लगाया तब जाकर एक रास्ता नज़र आया।क्यों ना एक -दो दिन के लिए उसे दादी के ऊन की टोकरी में रख दे बाद में सम्भाल लेंगे।सबसे सुरक्षित स्थान है वो।किसी तरह हिम्मत करके उसे छिपा तो दिया पर झूठ के पाँव नहीं होते! पर इनके थे और वो भी चार!

यह सुंदर, सफ़ेद झबराए बालों वाला पिल्ला टोकरी से निकल कर सीधे हमारे घर के मुआयने पर निकल पड़ा, जैसे यह इस इस्टेट का मालिक हो! इससे पहले की हम सब कुछ कर पाते यह जनाब सीधे पहुँचे रसोईघर में और सबसे पहले मुँह मारा दूध की पतीली में! फिर क्या, घर में कोहराम मच गया और फिर हमारी हालत तो कुत्ते से भी बुरी. ऐसी पिटाई हुई की एक हफ़्ते तक शरीर सूजा रहा।


इस कांड का ऐसा असर हुआ की हमने गली के हर कुत्ते से मुँह ही मोड़ लिया।

चटपटा-चटकारेदार

अब जिस बात के लिए मना कर जाता है उसे करने में अलग ही मज़ा आता है।अब यह ना सोचिए हमें कम सुनता था,सही सुनता था पर दिमाग़ में कुछ टिकता नहीं था!अम्माँ के लाख मना करने पर भी चोरी-चुपके छत पर पहुँच जाते और फिर जो धमाल मचाते पूछिये मत! दादी की गालियों, बन्नो बुआ की लानतों, माँ के मनुहार का हम पर कोई असर नहीं होता।

दरअसल,वो एक विशेष समय था जब हमारा छत पर "प्रवेश निषेध" था-विशेषकर गरमियों के दिनों में।आप सोच रहे होंगे क्यों? थोड़ा धीरज धरिए, अभी बताती हूँ- उस समय घर में कुछ अलग ही नज़ारा होता।घर की बरनियों धूप सेंक रहीं होती, पिसी हुई दालें रखी होती,कटा हुआ नींबू,आम,मिर्च एक तरफ़ रखा होता।अलग-अलग मसालों की सुगंध से पूरा रसोई घर महक रहा होता।माँ आलू के चिप्स बनाने के लिए आलू उबाल रही होती, तो दूसरी तरफ़ बन्नो बुआ ठीक से पापड़ ना बेलने के लिए दादी से डाँट खा रही होती।


फिर नमक लगी नींबू और आम की फाँके,दाल और साबूदाने के पापड़,मसाले से भरी लाल और हरी मिर्च रवाना होते छत की तरफ़ और हम सब उनके पीछे-पीछे! दूध की थैलियों से बनाई हुई लम्बी- लम्बी चादरों पर इन्हें सूखने के लिए छोड़ा जाता।पर, घरवालों को क्या मालूम की हमारे हाथ क़ानून से भी लम्बे हैं! हम चोरी से जा कर आम और नींबू की फाँकें ले आते और ख़ूब चटखारे ले-ले कर खाते। यहाँ तक की कच्चा पापड़ भी नहीं छोड़ते थे! 

जब चोरी करते हुए पकड़े जाते तो आम और नींबू के साथ तमाचे का स्वाद भी चखने को मिलता.. जो आज तक हमें अपने बचपन की याद दिलाता है।

मेरी विजय

माँ को सताना तो मेरा परम धर्म था।आए दिन कुछ ना कुछ करना और फिर डाँट खाना रोज़ का ही प्रोग्राम बन गया था। मैंने अपनी माँ को पिछले एक हफ़्ते से परेशान कर रखा था और उसकी झल्लाहट सातवें आसमान पर पहुँच चुकी थी. "क्या चाहिये तुझे,?" माँ ग़ुस्से से भड़की।मैंने भी थोड़ी सी हिम्मत बाँध कर कहा,
"क्या मुझे पाँच रुपये दे सकती हो,कुछ ख़रीदना है।"

मेरा तो यह कहना था और फिर जो डाँट की सूनामी शुरू हुई की उससे बच कर निकलना मुश्किल ही नहीं नमुमकिल भी हो गया! हज़ारों लानतें बरसाने के बाद माँ के दिल के कोने में सोई हुई ममता ने शायद उसे जगाया और माँ ने पुचकारते हुए पाँच का करारा नोट मेरे हाथ पर रख दिया।अब यह मत सोचिये की जंग इधर ही ख़त्म हो गयी, अभी तो और दाव-पेंच बाक़ी थे।

मुझे तो अभी दूसरी सीमा पर भी विजय पानी थी! ख़ुद को धकेलते हुए पिताजी के पास पहुँचा और अपनी कहानी शुरू करी दी।कहते हुए दिल ज़ोरों से धड़क रहा था और गला सूख रहा था। समझ नहीं आ रहा था की कैसे कहूँ ।हिम्मत करके कुछ शब्द निकले।"पिताजी, मुझे पाँच रुपये चाहिए स्कूल का कुछ ज़रूरी समान लेना है।" मैं हर तरह की गोलीबारी के लिए तैयार था! 

काम में अत्यंत व्यस्त पिताजी अपने चश्मे के नीचे से झाँकते हुए बोले," जा अलमारी से मेरा बटुआ ले कर आ,अभी देता हूँ।पाँच से काम हो जाएगा या दस चाहिए?" मैंने बहुत ही शराफ़त दिखाते हुए कहा, "नहीं,पाँच ही बहुत है।" अब लालच बुरी बला है,अगर लालच करता तो पता चलता की दस के चक्कर में मेरे पाँच भी चले गए!

सीमा पर बिना युद्द ही दुश्मन ने सफ़ेद झंडी दिखा दी।आज मैं ख़ुद से बहुत ही ख़ुश था।अब दो बड़े-बड़े सूरमाओं से काम निकलवाना कोई मेरा जैसा बदमाश ही कर सकता था!

स्विमिंग पूल

हम सब घर पर थे- लगातार बारिश हो रही थी और हम ख़ूब बोर हो रहे थे ।छुट्टी का दिन और कोई बदमाशी नहीं, ऐसा तो हमारी जनम कुंडली में लिखा ही नहीं था! पर करते भी तो क्या सारे बड़े घर पर ही थे - गुंजाईश बहुत कम थी।फिर भी हम सब मौक़े पर चौका लगाने में बहुत माहिर थे।अजी, हम थे उस्तादों के उस्ताद, कुछ ना कुछ तो करना ही था।


सब ने मिलकर अपने -अपने खुरापाती दिमाग़ पर ज़ोर डाला और सोचा, चलो छत का एक चक्कर लगा कर आते हैं।जाकर देखें आस-पास कितना पानी भरा है, सड़क पर दौड़ती हुई गाड़ियाँ कैसे पानी उछाल रहीं हैं, कौन -कौन बच्चे सड़क पर खेल रहे हैं।सबकी नज़रें बचा कर, हम सब सीढ़ियों की तरफ़ भागे. धीरे-धीरे एक-एक करके हम छत पर पहुँच गए.वहाँ का नज़ारा तो एकदम मस्त था- मूसलाधार बारिश, हवा में झूमते हुए पीपल और नीम के पेड़ और जगह- जगह रुका हुआ पानी.ऐसे मौसम की मस्ती को कोई हाथ से क्यूँ जाने देता भला!

चुपके से बड़ी अम्माँ की एक तरफ़ सूखती हुई साड़ियाँ लीं और धर दी नालियों के मुँह के आगे.बस फिर क्या था बारिश का पानी बढ़ता रहा और हमारा अपना स्विमिंग पूल तैयार होता रहा. ऐसा जान पड़ता था की मानो हमारी लॉटरी लगी गयी है.उलटे-पुलटे,गिरते-पड़ते इस पूल का आनंद लेना ही शुरू करा था की इतने में बड़ी अम्माँ पता नहीं कहाँ से प्रकट हो गयीं.


फिर जो गालियों की बारिश कानों में पड़ी वो इस बारिश से भी ज़्यादा घमासान और तेज़ थी !

मेरी सहेली

मुझे उससे बेहद लगाव था। जानते हैं, वो मेरे मामाजी के साथ विदेश से आयी थी। कितनी सुंदर लग रही थी अपनी गुलाबी फ़्रॉक में! जब मामाजी ने मुझे उससे पहली बार मिलवाया था तो मेरा मन ही नहीं हुआ उसके पास से जाने का।फिर मैं उसे अपने कमरे में ले आयी और अपनी कुर्सी पर बैठा दिया। मुझे उसके साथ समय बिताना बहुत पसंद था। मैं तो उसे अपने साथ स्कूल भी ले जाना चाहती थी पर अम्माँ ने साफ़ मना कर दिया। रोज़ स्कूल से आकर उसे सारी बातें बताती, अपना होम्वर्क उसके साथ करती और यहाँ तक की बैग भी उससे बातें करते -करते ही लगाती थी।

हम दोनों हमेशा संग-संग रहते थे,उठना-बैठना,घंटो ढेरों बातें करना,कभी रूठना और मनाना,बस एक दूसरे के साथ ही रहना।मुझे उसका साथ बहुत अच्छा लगता था- क्योंकि मैं बकबक ज़्यादा करती थी और वो चुप रहती थी! "अब अगर दोनो ही बोलेंगे तो सुनेगा कौन?" इसलिए मैंने तय किया की वो चुप रहेगी और मैं बोलूँगी।उसने मेरी यह बात बिना कुछ कहे ही मान ली, आख़िर वो मेरी पक्की सहेली जो थी।

मेरी सारी बातें आराम से सुनती थी.गरमियों में मेरे साथ आँगन में लगे हुए अनार के पेड़ के नीचे खेलना, हरसिंगार के फूलों की माला बनवाना, बरसात में छोटी-छोटी काग़ज़ की कश्ती पानी में तैराना,गीली मिट्टी में चलने वाले घोंघे को घंटो बैठ कर देखना,फ़ाख्ता के घोंसले में चुपके से उसके बच्चों को झाँकना, मकड़ी के जाले में सूखे पत्ते डालना, चींटियों की लाइन को इधर-उधर जाते देखना, माचिस के डिब्बी में कॉक्रोच को बंद करना और ना जाने कितनी बदमाशियाँ मैंने उसके साथ मिलकर करी।अगर और बताऊँगी तो पता नहीं कितने पन्ने भर जाएँगे!

मेरी प्यारी गुड़िया! कैसे भूल सकती हूँ उस नीली आँखों और सुनहरे बालों वाली सुंदर सी गुड़िया को,जिसने मेरे बचपन को इतना यादगार बना दिया...

Thursday, October 5, 2017

इतिहास की क्लास

हम इतिहास की क्लास में नींद के झोंके खा रहे थे.कुछ अपनी मेज़ पर ड्रॉइंग कर रहे थे, कुछ ब्लैकबॉर्ड कम और खिड़की के बाहर उड़ते कौवे ज़्यादा देख रहे थे।क्लास में आधे से ज़्यादा बच्चे तो ऊँघते हुए दिखाई दे रहे थे और शायद इसलिए हम इस क्लास को,"सोने की क्लास" बुलाते थे! ऊँघते बच्चों को देख पास बैठे बबलू के दिमाग में एक ख़ुराफ़ाती आईडिया आया।अब उसने तो शैतानियों में जो मुक़ाम हासिल किया हुआ था उस तक तो हम कभी पहुँच ही नहीं सकते थे।इसलिए चाहते ना चाहते हुए हमने उसे अपना गुरु मान रखा था।

हमें भी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी मुग़लों के ख़ानदान के बारे में जानने की।भई हमें कौन सी उसके साथ कोई रिश्तेदारी जोड़नी थी! इसलिए तय किया आज तो कुछ मज़ा किया जाए।फिर जैसे ही बबलू ने इशारा किया, हम भी उसके साथ बदमाशी में शामिल हो लिए।


उसके कहने पर बैग से निकाली हिंदी की नई कापी और सफ़ेद,करारे पन्ने फाड़ने शुरू कर दिए।देखते ही देखते कोई पन्द्रह-बीस बढ़िया हवाई जहाज़ हमारी मेज़ पर सज गए। ऐसा जान पड़ता था की मानो हम एक हवाई अड्डे के मालिक हैं और सारे जहाज़ हमारी मिल्कियत।अब जहाज़ हैं तो उड़ेंगे भी! बबलू और हमने मिलकर जहाज़ बाँटने शुरू कर दिए - कहते हैं ना शेयरिंग इज़ केरिंग!

जैसे ही टीचर ब्लैक्बोर्ड पर लिखने के लिए पलटी,वैसे ही जहाज़ों का टेक-ऑफ़ शुरू! कोई लैंड करा कचरे के डिब्बे पर,तो कोई पढ़ाकू पिंटू के पास, कुछ औंधे गिरे और कुछ ने तो हवाई पट्टी पर ही दम तोड़ दिया. असली तमाशा तो तब हुआ जब हमारे जहाज़ ने अपना रास्ता बदल कर टीचरजी के जूड़े पर लैंड किया! फिर क्या,सारी क्लास हँस-हँस कर बेहाल और टीचरजी ग़ुस्से से लाल!

उस दिन ऐसी धुलाई हुई की हमने फिर कभी हवाई जहाज़ के ख़यालों को भी लैंड नहीं होने दिया!

इंतज़ार

वो हफ़्ते में ३-४ दिन ही आता था, मगर हमारी नीयत तो देखिए हमें उसका हर दिन ही इंतज़ार रहता था।अब कौन समझा सकता था हमें - हम तो भई छोटी-छोटी ख़ुशियों में ही बहुत ख़ुश हो जाते थे।उसके आते ही हम सब बच्चे ऐसे ख़ुश हो जाते थे मानो हमें दुनिया की सबसे नायाब चीज़ मिलने वाली है.कितने सारे ख़्वाब बनाने लगते थे,अब भला ख़्वाब दिखने के पैसे थोड़े ही लगते हैं?

आपस में सलाह-मशवरा करते।कभी कभी झगड़ा और कभी तो इतना प्यार की घरवाले ही चकरा जाते थे! पर उसके आने का असर ही कुछ ऐसा था की सब कुछ मानो ठहर जाता था. कितने उतावाले हो जाते थे हम सब- शायद घड़ी से ज़्यादा हमें उसके आने का पता था. जहाँ घड़ी में दो बजे अपनी छोटी-छोटी मुट्ठियों में पैसे दबा कर, जाली के दरवाज़े पर झूलने लग जाते.कितनी बार तो माँ से डाँट पड़ती पर हमें कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता।यह सिर्फ़ हमारा हाल ही नहीं और बाक़ियों की भी यही कहानी होती।अब मई -जून की गरमी और गली में बच्चे अपने घरों के सामने लटकते हुए दिखायी देते, तो अंदर से आवाज़ पड़ती," कंबख़्तो अंदर आ जाओ। लू लग जाएगी। जब वो आएगा तब मालूम पड़ जाएगा, तुम अभी से क्यों बाहर घूम रहे हो!"

फिर दूर गली के कोने पर उसकी एक झलक पाते ही कितने ख़ुश हो जाते।वो अपनी सफ़ेद-नीली धारियों वाली गाड़ी में तरह- तरह की आइसक्रीम लेकर आता था।उसके आते ही बच्चों में खलबली मच जाती।सब बेसब्री से उसका पीपल के पेड़ के नीचे रुकने का 
इंतज़ार करते। फिर जैसे ही वो गाड़ी का ढक्कन खोलता- बस सबकी फ़रमाइशें शुरू हो जाती। कोई ऑरेंज लेता,तो कोई पाइनैपल, लेमन या रोज़- जितने बच्चे उतनी अलग -अलग पसंद। जिसके ज़्यादा ठाठ होते वो तो सीधा दूध-क्रीम वाली आइसक्रीम लेता। अगर किसी को ज़्यादा पैसे मिलते तो उसकी तो लॉटरी ही लग जाती- फिर तो कसाटा से कम में बात ही नहीं बनती।


सब मज़े ले-ले कर खाते और ख़ूब सारी बातें करते।गरमियों की छुट्टियों की वो लम्बी दोपहर में अपनी मनपसंद आइसक्रीम खाना और बातें करना कितनी ठंडक पहुँचता था...

Tuesday, October 3, 2017

मेरी नई पहचान

मैं आज आप के साथ एक बहुत ही मज़ेदार क़िस्सा शयेर करता हूँ।हो सकता है ऐसा कांड आप में से किसी के साथ शायद हुआ हो या ना भी हुआ हो।

उस दिन तो मुझे बहुत ही अजीब लग रहा था- ऐसा जान पड़ता था की किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा! आस पास सब बदल सा गया था, सब कुछ साफ़-साफ़, बिलकुल नया सा मालूम होता था.बीच -बीच में ऐसी भी फ़ील आ रही थी की मानो मैं मून वॉक कर रहा हूँ। एकदम ही अलग नज़ारा था! मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं हँसू या रोऊँ। मेरी तो मानो ज़िंदगी ही बदल गयी थी।

अब यह तो मेरी सोच थी।यह सब उधेड़- बुन तो मेरे दिमाग़ में चल रही थी पर आसपास तो कुछ और खिचड़ी पक रही थी।मेरे घरवालों को तो मैं एकदम बुद्धिजीवी जैसा दिख रहा था और दोस्तों को कुछ बदला हुआ सा, ज़रा हट के टाइप्स! सब अपनी-अपनी विशेष टिप्पणी देने में लगे हुए थे।सबसे ज़्यादा ग़ज़ब तो बन्नो बुआ ने ढा दिया!मुझे देखते ही माँ से बोली,"इतनी छोटी उम्र में यह क्या हो गया भाभी!अब इससे कौन ब्याह करेगा?" बुआ की इस बात से तो मुझे झटका ही लग गया।अरे भाई कोई मुझसे भी तो पूछो की मुझे कैसा लग रहा है? इस से तो किसी को कोई मतलब नहीं, सब अपने अपने कॉमेंट देने में ही लगे थे.


बड़ी मुश्किल से पिताजी के साथ गया था शाम को दुकान पर - जिस दिन वो कांड हुआ था. उस रोज़ तो कमाल हो गया, दूर से आते हुए पिताजी को नहीं पहचाना और उन्हें "नमस्ते अंकलजी" कह कर आगे निकल गया! फिर घर पर जो क्लास लगी तो सीधे पहुँचाये गए चश्मे की दुकान पर- जहाँ दूर लगी पट्टी पर लिखी छोटी-बड़ी abcd को पढ़ भी ना पाए. तो पता चला की दिमाग़ नहीं पर आँखें ज़रूर कमज़ोर हैं!

फिर क्या था काले फ़्रेम वाला चश्मा मेरा साथी और मेरी नई पहचान बन गया इस दुनिया को साफ़-साफ़ देखने और समझने के लिए...

मेरी ज़िद

अब हुआ कुछ ऐसा की मैंने बस ज़िद ही पकड़ ली की मुझे तो बस बबलू जैसी ही सेम -टू-सेम ही चाहिये।सारे स्कूल पर रोब झाड़ रखा था उसने। जिस दिन से उसके साथ आना शुरू किया उसकी हीरोपंती कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी थी। फिर, क्या ज़बरदस्त फ़ैन फ़ॉलोइंग- सब बच्चे उसके आगे- पीछे! वैसे मेरी भी मार्केट वैल्यू अच्छी थी पर वो साथ होती तो शायद और बढ़ जाती! अब मैं भी कोई कम नहीं- पर उसके बिना कम भी और ग़म भी।

हमारे घरवाले हैरान-परेशान! उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था की आज स्कूल में ऐसा क्या हो गया की मैंने उनकी नाक में दम कर रखा है।दादी ने प्यार से पूछा तो मैंने बात सुनी-अनसनी कर दी, माँ के तो मैं क़ाबू में ही नहीं आया, चाची कितनी बार आयीं मेरे पास- पर नहीं मुझे तो बस पिताजी से ही बात करनी थी. मैंने सोचा, अब बड़े अफ़सर से बात करके ही तो काम होगा, यह छोटे- मोटे मुलाजिम मेरा इतना ज़रूरी काम नहीं कर पाएँगे!

घड़ी की सुइयाँ देखते -देखते तो मैंने दोपहर काटी।जैसे ही पिताजी के आने का पता चला, मैं बिना वक़्त बर्बाद किए सीधा उनके पास गया -कुछ घबराया और डरा सा।पिताजी स्कूल के क़िस्से के बारे में कुछ नहीं जानते थे। माँ ने भी उन्हें मेरे आज के प्रपंच के बारे कुछ नहीं बताया था, यानी मैदान एकदम साफ़! मैंने बोलना शुरू किया और उन्होंने मेरी सारी बात तसल्ली से सुनी।अब नौटंकी में तो हमारा कोई सानी नहीं है इतनी भोली सूरत बनाई की पापा तो वहीं पिघल गए!

फिर प्यार से बोले, "क्या चाहिये?" बस क्या था हमने अपने दिल की बात कह दी.पिताजी भी बात के पक्के निकले- अगले ही दिन वो घर पर आ गयी.

चमकती हुई, काले रंग की, टोकरी और घंटी वाली मेरी अपनी साईिकल- जिसने मुझे उड़ने के लिए पंख दिए और आगे बढ़ने के लिए सही रास्ता दिखलाया।

यादों की अलमारी

उसकी जगह घर में कुछ ख़ास ही थी- एकदम स्पेशल! अंदर वाले कमरे रहती थी वो- और उधर आना जाना सख़्त मना था।बिना माँ की इजाज़त के बिना तो कोई उसके पास भी नहीं जा सकता था! विश्वसनीय सूत्रों से यह पता चला था की वो माँ के साथ उनके मायक़े से आयी है, इसलिए उनकी बहुत ख़ास हैं। बहुत से घर के राज, ज़रूरी बातें वो जानती हैं और उन्होंने सब चीज़ें अपने पास छिपा रखी हैं।तभी, हम जैसों की पहुँच से बिलकुल ही बाहर थी और शायद इसीलिए हमारी जिज्ञासा की लिस्ट पर सबसे टॉप पर भी थी!

सबसे ज़्यादा मज़ा तो तब आता जब काम वाली बाई अंदर वाले कमरे की सफ़ाई करती और माँ उसके पीछे-पीछे साये की तरह घूमती।

काले बैग में पापा की ऑफ़िस के काग़ज़,दादी की पेन्शन फ़ाइल, बैंक की पास बुक, चेक्बुक, हमारे हर साल के रिज़ल्ट,दर्ज़ी के पिछले पाँच साल के पुराने बिल, दूधवाले और प्रेस वाले भैया के बिल, शादी के निमंत्रण पत्र, पंद्रह पैसे वाले ख़ाली पोस्टकार्ड,जनमदिन के कार्ड,तोहफ़ों की पन्नी, विदेश में रहने वाले मामाजी के भेजे हुए ख़त, पुराने चश्मे, कुछ बेरोज़गार पेन, हमारी
 स्कूल की सालाना फ़ोटो जिसमें हम इधर -उधर ताक रहे होते, फ़ोटो अल्बम, गरम कपड़े और बहुत कुछ वो समान जिसके बारे में शायद माँ को भी कोई इल्म नहीं था।


माँ के गहने और सुंदर-सुंदर साड़ियाँ जिन्हें बाहर के दर्शन सिर्फ़ ब्याह - शादियों, पूजा में ही होते थे।शगुन के लिफ़ाफ़े, त्योहारों पर मिले चाँदी के सिक्के, चाँदी के लक्ष्मी-गणेश जो साल में सिर्फ़ एक बार दिवाली पर ही दिव्य दर्शन देते थे!


यह सब और जाने क्या -क्या रखा और सम्भाला जाता था इस गोदरेज की अलमारी में । जो कुबेर के ख़ज़ाने से कुछ कम पर यादों से ज़्यादा भरी रहती थी...

Sunday, October 1, 2017

माँ

"आज मुझे कुछ स्पेशल खाना है!" मैंने स्कूल से आते ही घोषणा कर दी. माँ और दादी ने एक बार नज़र उठा कर भी नहीं देखा।दोनो अपने कामों में इतनी व्यस्त थी की उन्होंने मेरी बात भी अनसुनी कर दी।

आज मेरे साथ बहुत ही बुरा हुआ।अब क्या हुआ मैं आपको सब बताता हूँ- आज बबलू स्कूल में बहुत ही मज़ेदार खाना लाया था- सारे बच्चे उसके आस पास मक्खियों की तरह मँडरा रहे थे।डिब्बे में कचौरी,मीठी चटनी,मूँग की पकोड़ी,आलू की टिक्की और मेरा फ़ेवरेट गाजर का हलवा।इससे पहले की मैं कुछ चख पाता, टीचरजी आ गयीं और उसने डिब्बा बंद कर दिया। मुझे तो बस एक झलक ही मिली देखने को।दूसरी ब्रेक में मैंने उसे बड़े प्यार से माँगा तो उसने मुझे ज़ोर से झिड़क दिया। कितनी बेज़्ज़ती हुई मेरी!

फिर घर आ कर माँ और दादी ने मेरी बात नहीं सुनी तो मुझे और भी बुरा लगा।ऐसा महसूस हुआ की इस घर में मेरी बात की कोई वैल्यू नहीं है! ग़ुस्से में ना तो माँ से बात करी और ना ही दोपहर का खाना खाया।बस रज़ाई से मुँह ढक कर सो गया।शाम को जब आवाज़ें सुनाई दी तो अहसास हुआ की पिताजी आ गये हैं।दबे पाँव कमरे से निकला ही था की इतने में पिताजी ने आवाज़ लगाईं।तुरंत रिवर्स गेयर में ख़ुद को डाल उनके पास हाज़िरी लगाने पहुँच गया।इससे पहले पिताजी मेरी क्लास लगाते दादी ने खाने के लिए बुला लिया।

खाने की मेज़ पर आलू-पूरी,दही-भल्ले,मटर कचौरी और गाजर का हलवा मेरा इंतज़ार कर रहा था।माँ ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुआ कहा," इतनी छोटी-छोटी बातों पर नाराज़ मत हुआ कर,चल खाना खा ले!" माँ का इतना कहना था और मेरी आँखों में आँसू आ गए।

हम बच्चे चाहे कुछ भी करे, माँ तो बस माँ ही होती है!


तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...