Friday, October 13, 2017

प्यार की गरमाई

कार्तिक मास के आते ही हल्की- हल्की गुलाबी ठंड पड़ने लग जाती थी।यहाँ दिवाली गयी और वहाँ सर्दियाँ दरवाज़ा खटखटाने लगती। मगर माँ और दादी की तैयारी तो उससे पहले से शुरू हो जाती थी। रज़ाइयों को निकलवा कर उन्हें धूप लगाना, गद्दों की धुनाई करवा के उन्हें फिर से भरवाना,कंबलों को खोल-खोल कर चेक करना कहीं उसे कोई कीड़ा तो ख़राब नहीं कर गया। यदि एक भी छेद दिख जाता तो बस दादी शुरू हो जाती, " कितनी भी गोलियाँ डाल दो, ये मरे कीड़े मरते ही नहीं!" और हम इस सोच में पड़ जाते की अगर कीड़े मरे हैं तो दोबारा कैसे मर सकते हैं!

ख़ैर, आगे चलते हैं- इनके सब के बाद नम्बर आता हमारे सब के ऊनी कपड़ों का।पिताजी के मोटे-मोटे काले और भूरे ऑफ़िस पहन कर जाने वाले ओवर कोट।कभी-कभार शादियों में दर्शन देने वाली शेरवानी, ज़रूरी मीटिंग में जाने वाला काला कोट। पिताजी की शादी का सूट जो हर साल धूप खा कर वापिस बक्से में चला जाता था। अब उसे बाहर निकला भी क्यों जाता था वो हम सबकी समझ से परे था। दादी और माँ के हाथ के बुने हुए आधी और पूरी बाज़ू के स्वेटर- जो उन्होंने सरिता और गृहशोभा के विशेष बुनाई अंक से देख कर बनाए होते या फिर कविता आंटी से डिज़ाइन माँग कर।


फिर आते हमारे कपड़े, मेरा लाल -काले चेक वाला कोट जो मामा अमेरिका से लाए थे। माँ के हाथ के बनाए मफ़्लर, बंदर टोपी और दस्ताने- जो हमें क़तई पसंद नहीं थे।सुंदर- सुंदर पैटर्न वाले स्वेटर, हरे रंग का कोट जिसकी जेबों में से अक्सर मूँगफली के छिलके मिलते थे और कभी -कभी चवन्नी या अठन्नी भी मिल जाती थी! बाहर आने जाने वाले स्वेटर जो सिर्फ़ मैं सिर्फ़ बाहर ही पहन कर जाता था ।"कितनी बार मना किया है बाहर आने जाने वाले कपड़े घर में मत पहना कर, मगर ये निकम्मा तो सुनता ही नहीं है!" माँ तो जाने कितनी बार ग़ुस्सा करती थी मगर उनकी नज़रे बचा कर मैं अपना फ़ेवरेट स्वेटर अक्सर पहन लेता था। स्कूल का कोट, स्वेटर और टाई- कितने ध्यान से रखती थी माँ ये सब कपड़े। ड्राई क्लीनर के बैग में से निकले भी ना जाते थे और सीधा अंदर रखे जाते ताकि अगली सर्दियों तक कपड़ों की प्रेस ख़राब ना हो।
 

फिर माँ, दादी और अपने कपड़ों के लिए जगह बनाती- दादी के शॉल जो कभी दादाजी शिमला से लाए थे, उनके हाथ के बने ऊनी बलाउस, स्वेटर और उनके दो जोड़ी मोज़े। मजाल है की दादी के मोज़े कोई पहन सके, ग़लती से कभी अगर बन्नो बुआ पहन लेती तो कितनी डाँट लगाती थी दादी।" कमबख़्त,बिना चप्पल के घूमती रहती है दिन भर।अपने मोज़े ख़राब तो कर दिए,अब मेरे भी ख़राब कर देगी!" बहुत सहेज कर रखती थी दादी अपनी चीज़ों को- कहती थी उन में उनकी यादें और बातें छिपी हुई हैं !

माँ भी अपने कपड़ों के लिए जगह बनाती - उनका लाल और भूरा कोट जो नानाजी कभी उनके लिए विलायत से लाए थे और माँ की छुटपन की यादें जुड़ी थी उससे। इसलिए शायद पिताजी से ब्याह करके वो अपनी उन यादों को अपने साथ ले आयी थी। अब तो वो कोट उन्हें नहीं आता था पर हर साल कोट सर्दियों की धूप सेकने के लिए बाहर ज़रूर आ जाता था । माँ का वो बादामी स्वेटर तो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद था - जब माँ उसे अपनी बनारसी साड़ी के साथ पहनती थी तो बहुत सुंदर दिखती थी। कितना साथ निभाया था इस स्वेटर ने- कम्मो मौसी के ब्याह में गया, दीप्ति दीदी की सगाई में गया, बंटू मामा की नए साल की पार्टी में भी और तो और बन्नो बुआ के साथ भी गया उनके कॉलेज की पार्टी में! कितने सारे शॉल थे माँ के पास- हल्के सफ़ेद रंग का पश्मीना शॉल जो पिताजी माँ के लिए कश्मीर से लाए थे, बारीक कढ़ाई वाला गुलाबी शॉल, बॉर्डर वाला काला शॉल, घर में ओढ़ने वाले शॉल और ना जाने कितने और। 


ये सारे गरम कपड़े बीते सालों की यादें और प्यार की गरमाई से भरपूर थे। इसलिए जब भी हम इन्हें पहनते तो अपनेपन की गरमाहट हमें पूरी सर्दी ठंड से बचा कर रखती...

No comments:

Post a Comment

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...