Tuesday, March 30, 2021

हवा हवाई

मैं आपके साथ एक बहुत ही धमाकेदार क़िस्सा शेयर करना चाहता हूँ और यक़ीन मानिये इस घटना की वजह से हमारी ज़बरदस्त मरम्मत हुई की हम को अंतरिक्ष के सारे प्लानेट्स नज़र आ गए. हुआ यूँ दिवाली के दिन थे- हर किसी के घर कहीं ना कहीं से पटाखे और मिठाइयाँ आ रहीं थी और सबसे ज़्यादा ऐश बच्चों की हो रही थी. सबके पास पटाखों का ख़ज़ाना जमा होता जा रहा था. राजू के चाचा की पटाखों की दुकान थी - तो सबसे मस्त और नये टाइप के पटाखे उसके पास थे- बड़े वाले अनार और चकरी, सतरंगी पेन्सल, सुनहरे तारों वाली फूलझडी और ना जाने क्या - क्या! अब घर की दुकान होने का कुछ तो फ़ायदा होगा. बंटू के पास रंग-बिरंगी लम्बी तार, काले बटन जिसे माचिस से जलाओ तो ये लम्बे-लम्बे काले सांप बन जाये और मोटे वाले आलू बम. सन्नी के पास हरे गोला बम और खूब सारी फूलझड़ियाँ!
हमारे पास भी पटाखों का बड़ा ख़ज़ाना था पर हम ने किसी को उसकी भनक भी ना लगने दी, वरना सबसे पहले हमारे ही पटाखे स्वाहा हो जाते! हम भी बहुत उस्तादी से एक- एक करके अपने पटाखे निकलते और मज़े ले कर चलाते. परसों जब चमन चाचाजी घर आए तो हमारे लिए रसमलाई, काजू कतली और ढेर सारे पटाखे के कर आए थे. लम्बी- लम्बी फूलझडी, जंबो चकरियाँ, मिनी अनार और मैजिकल हवाई! ये हवाई थी ही कुछ अलग टाइप की- पूँछ में आग लगा दो तो सीधे आसमान में जा कर इंद्रधनुष के रंग वाले सितारे फेंकती और पूरे पाँच मिनिट के लिए सब तरफ़ चमकीली रोशनी बिखेर देती.
हम जैसे ही उसकी की ओर अग्रसर हुए पीछे से एक आवाज़ आयी, “ ख़बरदार हवाई को हाथ मत लगाना. दूसरे पटाखे ले कर जाओ. इसे कोई बड़ा तुम्हारे लिए चलाएगा- तुम लोग इस को हैंडल ना कर पाओगे.”
यह बात हमें हज़म ना हुई- हजमोला खा कर भी नहीं!
कोई भी हम पर पाबंदी लगाए, सवाल ही नहीं उठता! अब हमारा ख़ुराफ़ाती दिमाग़ हवाई चलाने के लिए नयी-नयी तरकीबें  सोचने पर आमादा हो गया.
फिर आपस में सलाह करके हम ने डिसाइड किया हमारे पास चोरी के अलावा कोई और रास्ता ही नहीं है- जानते हैं चोरी करना ग़लत है पर दिवाली को और चमकदार बनाने के लिए सब कुछ जायज़ है. हमारे सामने सबसे बड़ी प्रॉब्लम थी की दुश्मन के ख़ेमे में कैसे घुसे और चोरी करें! चारों तरफ़ सख़्त पहरा - दादी, बन्नी बुआ, पिताजी, माँ और मुक्कु चाचा की नज़रों से बचना मुश्किल ही नहीं बेहद नामुमकिन भी था. पर जब हम एक बार कमिट्मेंट कर देते हैं तो अपनी भी नहीं सुनते!
सिर्फ़ हम ये अच्छे से जानते हैं की, “ हम किसी से कम नहीं!”

इक्स्क्यूज़ में! ये सिर्फ़ फ़िल्मी टाइटल नहीं हम बच्चों की सच्चाई है. अब कुछ भी करके उमे पिताजी के कमरे में जाकर हवाई का पैकेट उठाना है. सबने  मिल कर ब्रेन स्टोर्मिंग की और तभी दिमाग़ का बल्ब चमक उठा- हर रावण की लंका में कोई ना कोई विभीषण होता है तो फिर हमारी लंका, ना-ना! हमारे घर का विभीषण कौन? माँ - नहीं वो तो कभी हमारी बात कभी नहीं मानेगी, गुड़िया दीदी - उफ़्फ़! एक नम्बर की चुगलख़ोर है, चिंटू भैया- ग़ुस्सा तो उनकी नाक पर रहता है, सपना चाची - ऑल इंडिया रेडिओ से ज़्यादा से ज़्यादा तो वो ख़बरें दे देती हैं! अब हम नन्हें- मुन्नों की नैया कौन पार लगाएगा ?

तभी हमने देखा की हमारी इस विकट समस्या का हल ख़ुद ही चल कर हमारे पास आ रहा है.कविता मौसी और कमल मौसाजी बरामदे में खड़े थे और सबको दिवाली की बधाई दे रहे थे.हमारे लिए  मिठाई और ढेर सारे पटाखे भी लेकर आए थे और शायद इसीलिए हम उनसे मिलने के लिए हम बहुत बेताब हो रहे थे.मैं चुपके से मौसी के पास गया और उनसे रिक्वेस्ट की किसी तरह से वो हमारी मदद कर दें और हमें अपने लक्ष्य यानी हवाई के पैकेट तक पहुँच दे. अब उम्मीद पर तो दुनिया टिकी है! मौसी ने मौसाजी से कुछ कहा और वे तुरंत ही पिताजी की तरफ़ मुड़े और बोले,“ भाईजी दिवाली का असली मज़ा मिठाई से ज़्यादा तो पटाखे चलाने में है - चलिए एक बार फिर से बच्चा बन जाते हैं.” उनकी बात पिताजी कभी टाल नहीं सकते थे और हमें आवाज़ दे कर बुलाया,  जाओ टेबल से पटाखे उठा लो, सिर्फ़ फूलझडी और अनार, रॉकट को हाथ मत लगाना.”  हमने आँखों ही आँखों मेओं एक दूसरे से मेसिज इक्स्चेंज किया और आज्ञाकारी बालकों के जैसे गर्दन हिला कर जी पिताजी बोल दिया. पिताजी तो हमारी इस खुरापात की खिचड़ी से बिलकुल ही अनजान थे! हम मेज़ पर रखे पटाखे उठाने ही जा रहे, इतने में मौसाजी ने पिताजी को आवाज़ दे कर बुला लिया- यानी मैदान क्लीर! अब लम्बा हाथ मारने का टाइम था. झटपट से कुछ फूलझड़ी, चकरी, अनार के साथ दो हवाई भी उठा लीं.

सामने से माँ आती दिखाई दी तो गप्पू ने झट से अपनी क़मीज़ के अंदर हवाई छिपा ली. माँ ने गप्पू को देखा तो बोली, “ ऐसे इठला कर क्यों चल रहा है? तेरी क़मीज़ में चिटियाँ घुस गयी हैं क्या ? ” हमारे तो मुँह में मानो दही जम गया हो! तभी कविता मौसी की एंट्री हुई और माँ का हाथ पकड़ कर बोली,  जीजी क्या तुम भी बच्चों से उलझ रही हो ? मेरे साथ चलो तुम्हें अम्माँजी बुला रहीं हैं. ” 

उस समय मौसी हमें साक्षात् दुर्गा माँ का अवतार लग रहीं थी जो अपने भक्तों की रक्षा के लिए आयी थीहमें सब आँगन लांघ के दौड़े गली में सब के संग पटाखे चलाने के लिए

बिल्लू ने जैसे ही हमारे पटाखे देखे तो एकदम भौंचक्का हो गयाबड़ीबड़ी फूलझड़ी और सतरंगी चकरियाँ उसके पास नहीं थी.

हमारे पास हवाई है.तुम्हारे पास क्या है ?” 

हमने झट से बच्चनजी के लहजे में सबसे पूछ डाला!इस सवाल का जवाब गली में किसी बच्चे के पास नहीं थाक्योंकि किसी को भी हवाई चलाने की इजाज़त नहीं थीहवाई को काँच की ख़ाली बोतल में सीधा रख उसकी पूँछ में आग लगायी जाती थीऔर अगर ज़रा भी टेढ़ा मेढ़ा हो जाती तो दिशाहीन हो किधर का भी रुख़ कर लेती.


अब चाहे वो किसी का आँगन होदुकान या फिर?

जी हाँयहीं सी दिवाली की दास्तान का रुख़ बदलने वाला हैहुआ यूँ की जब हम ने छोटे - मोटे पटाखे चला लिए तो ये तय किया जिस हवाई के लिए हमने इतने पापड़ बेले थे उसे आसमान की सैर करवायी जाएचिंटू ने फाटक से किसान ऑरेंज स्क्वॉश की ख़ाली बोतल हमें थमा दी सब चाहते थे की हवाई को इसी से लॉंच किया जाए

फिर क्या था ये महान कार्य करने के लिए मुझे चुना गयामैं यही चाहता ही था पर इतना उतावला हूँ सबके सामने नहीं दिखासकता थासमतल ज़मीन पर लॉंच पैड रख उसने हवाई को सावधानी से खड़ा कर दियाबबलू ने फूलझड़ी ला कर दी और जैसे ही फूलझडी की चिंगरियों ने बॉटल में रखी हवाई  को छुआ कुछ चिंगारी छिटकी, कुछ सितारे से गिरे और ये क्या??

हवाई आसमान की और ना जा कर कहीं और ही चल दी

बूझिए तो कहाँ 

सीधा जा कर अटैक किया मन्नू के मामा पगड़ी परउधर मामाजी शॉकएडइधर हमउन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और हवाई की जर्नी का दी एंड कर दियाउसके बाद आयी हम सब की बारीपिताजी ने ऐसी सुताई की उसकी आवाज़ चार 
गली दूर भी सुनाई दी होगीहवाई के बदले रुख़ ने हमारी एंटर्टेन्मेंट का रुख़ ही बदल दिया...



Wednesday, March 24, 2021

हर घर कुछ कहता है

हमारा घर कुछ अलग सा था, बहुत कुछ कहता और सुनता था- कुछ कहीं- अनकही बातें, क़िस्से और कहानियाँ, ढेर सी शिकायतें, प्यार- मोहब्बत से भरे अल्फ़ाज़ और बहुत कुछ जाना-अनजान सा.
ये मकान दादाजी के पिताजी ने बनवाया था- जानते हैं कितना बड़ा है ये! बिट्टू चाचा की शादी में खूब सारे मेहमान आए थे और सब के सब यहीं रहे थे- कितना मज़ा किया था सबने मिलकर. सुना है ये बहुत पुराना है, दादाजी के दादाजी जितना पुराना- तो फिर हुआ ना अंग्रेजों के टाइम का! गली में सबसे बड़ा तिमंज़िला मकान था ये, आजू-बाजू और बहुत से मकान थे पर इसके जितना बड़ा कोई भी नहीं था. गली के नुक्कड़ से ही हमारा हलके पीले-सफ़ेद रंग की सफ़ेदी और मटमैले नीले रंग के दरवाज़ों वाला मकान नज़र आ जाता था.
पंसारी की दुकान पर माँ के समान की लिस्ट जैसे ही पकड़ाते तो झट से वो हमें पहचान लेता. “ पीले-सफ़ेद रंग के बड़े मकान वाले डॉक्टर साहब के पोते हो ना? अभी कुछ देर में लड़के के हाथ समान भिजवाता हूँ.” कमाल है, पंसारी की याददाश्त की- मकान के रंगो से मुझे पहचान लिया! धोबी के पास इस्त्री के लिए कपड़े देने जाते तो वो एकदम देखते ही बोलता, “ मटमैले नीले दरवाज़े वाले मकान में रहते हो ना!डॉक्टर साहब को मेरी राम-राम बोलना.” वो तो मैं बोल दूँगा पर लगता है कि हमारे घर की सफ़ेदी और दरवाज़ों का पेंट पूरी गली में वर्ल्ड फ़ेमस है!


हमारे घर के आँगन में लम्बी-लम्बी क्यारियों में अनार और अमरूद का पेड़ लगे  थे जिन पर पर सुबह से लेकर शाम तक ढेरों चिड़ियों की रौनक़ लगी रहती थी. अक्सर उन पर तोते, बुलबुल और मैना का भी आना-जाना लगा रहता, पूरे दिन पक्षियों का मेला सा लगा रहता. पेड़ों के साथ वाली छोटी क्यारियों में माँ ने तरह-तरह की सब्ज़ियाँ लगा रखी थी. “ आँगन से मुझे टमाटर तोड़ कर ला दे. देख ध्यान से तोड़ना, ज़ोर से खींच कर पूरा पौधा मत हिला देना.” ओके माँ! यह बोल कर मैं झट से भाग जाता आँगन में और जानते हैं कितना मज़ा आता लाल टमाटरों को तोड़ने में! वही साथ में हरी मिर्च के पौधे और लौकी की बेल थी- जिस में खूब बड़ी-बड़ी लौकी आती थी और अक्सर हमारे साथ-साथ पड़ोसियों के घर भी रवाना की जाती.

सब्ज़ियों की क्यारियों के पास गुलाब, चम्पा, चमेली,गुलदाऊदी के फूल वाले पौधे लगे थे- आँगन भीनी-भीनी ख़ुशबू से महकता रहता था. गर्मियों में पेड़-पौधों को पानी देने के बाद पूरे आँगन को ठंडा करने के लिए पानी से धोया जाता तो चारों तरफ़ कितनी प्यारी महक फैल जाती. बारिश के दिनों में छोटे-छोटे घोंघे, मिट्टी को ऊपर-नीचे करते हुए केंचुए,हरी टिड्डियों, रंग-बिरंगी तितलियों को देखने में हमरा सारा समय बीत जाता. हम अपने इस बड़े घर में हर मौसम का ख़ूब मज़ा लेते- चाहे गरमी हो या सर्दी, हमारे लिए हर दिन ख़ूब मज़े का होता था.

आँगन से सटे बरामदे में झूला लगा हुआ था- ये हम सब का फ़ेवरेट था. झूले पर बैठ कर हम पूरे आँगन का नज़ारा लेते और हवा के संग खूब बातें करते, ऐसा जान पड़ता था मानो हम कहीं सैर पर निकले हुए हैं. बरामदे में चार बड़े-बड़े रोशनदान थे जिसने मियाँ कबूतर अपने परिवार के साथ रहते और जो दादी को बिल्कुल भी पसंद नहीं थे. “दादी ये तो मुफ़्त का किरायेदार है, ये ना किराया देगा !” अब दादी से ऐसा कहने का मन होता पर हिम्मत नहीं.

रोशनदान के ठीक नीचे लगी थी नीले कपड़े की लाइनिंग वाली चिक- जिनका रंग नीले से मटमैला हो गया था. गर्मियाँ शुरू होते ही दोपहर से पहले चिकों को नीचे कर दिया जाता ताकि कमरे और दालान ठंडा रह सके. कितना अच्छा  लगता था- जब बाहर आँगन धूप से तप रहा होता तब बरामदे में लगा लाल कोटा पत्थर का फ़र्श ठंडा रहता. चिकों से छन कर आती हुई हल्की-हल्की सूरज की रोशनी से पूरा बरामदा सुंदर, सुनहरा हो जाता था. हम चटाई पर औंधे पड़े सूरज की रोशनी को अपने हाथों में पकड़ने की कोशिश करते और जब नहीं पकड़ पाते तो चटाई से निकली तीलियों को खींच कर उनसे ही खेलने लग जाते. तभी दादी की कर्णभेदी आवाज़ आती, “ नासपीटों, सारी चटाई ख़राब कर डाली, हर समय कुछ ना कुछ बदमाशी करते रहते हो.” दादी के डर से तीलियाँ वहीं फेंक हम अंदर कमरे में आ चुपचाप खेलने लगते. अब दादी से पंगे, नो वे!

बरामदे के साथ सटे हुए हर कमरे की अलग सी कहानी थी, कुछ बातें वहाँ रखा समान करता तो कुछ अफ़साने सुनती पुताई करीं हुई दीवारें. हमारे लिए तो जैसे सारा जहान इस घर में ही सिमट आया था! आँगन से लेकर छत तक, नीचे के कमरों से लेकर ऊपर के कमरों तक हर जगह सिर्फ़ हमारा राज  था- कभी दादी की डाँट,कभी दादाजी का प्यार, कभी माँ का दुलार, कभी बन्नो बुआ से नौक-झोंक, कभी पिताजी की फटकार और ना जाने कितने रंग़ो से निखरा और संवरा हुआ तो गली के नुक्कड़ वाला ये तीनमंज़िला मकान!


हर घर कुछ कहता भी है, सुनता भी है और समझता भी है- आपस का प्यार, शिकवे-शिकायतें और बहुत कुछ जो कभी कहा नहीं और कभी सुना नहीं...

क्या आपका घर भी कुछ कहता है?




Friday, March 19, 2021

स्टोर की स्टोरी

गर्मियों शुरू होने के कुछ हफ़्ते पहले से ही हमारे घर का कुछ अलग ही नज़ारा होता था- हर कोई बस बिज़ी दिखाई पड़ता था.जिस स्टोर की तरफ़ कोई देखता तक नहीं था- उधर सब का आना- जाना लगा रहता. कुछ सामान रखा जाता, कुछ निकाला जाता और ना जाने क्यों इन सब में हमारी दिलचस्पी कुछ ज़्यादा ही रहती. स्कूल से आकर झटपट कपड़े बदल, खाना खा कर हम सब स्टोर के दरवाज़े पर लटक लेते- क्या मालूम कौन सी इंट्रेस्टिंग चीज़ मिल जाए! हम सब को स्टोर रूम में अकेले जाते हुए बहुत ड़र लगता था- कुछ ना कुछ कर के हम उधर का काम टाल देते थे. कभी मजबूरी आन पड़ती तो भैया हम सब इकट्ठे ही जाते. अब किसी ने सही तो कहा है की एकता में ही बल है. ना, ना ग़लत समझे आप! मैं बाजू वाले घर की एकता की बात नहीं कर रहा हूँ- वो तो बहुत कमज़ोर सी है, मैं हम सब के साथ होने की बात कर रहा हूँ.
स्टोर रूम में अकेले जाने की हिम्मत नहीं होती थी- ऐसा नहीं था वहाँ कोई भूत-चुड़ैल रहते हैं पर अंदर का माहौल कुछ डरावना सा लगता था. बिजली की खपत कम हो इसलिए अंदर एक मरियल- सा, अपने जीवन से दुखी पीला बल्ब इतने बड़े स्टोर को रोशनी देने की कोशिश में दिन-रात लगा रहतावहीं स्विच के पास बने हुए आलों में भिन्न- भिन्न तरह की चीजें रखी रहती- जैम और रूहफ़जा की ख़ाली बोतलें, छोटे टिन के डिब्बे, रस्सियों के गोले, कुछ टूटी-फूटी मकड़ियों के जाले से सजी हुई चीज़ें. हमारी कोशिश ये रहती की कुछ भी हो जाए पर हम अपने हाथ को गलती से भी उन आलों तक ना पहुँचने देंगे. इसलिए बड़ी सावधानी से हम बत्ती जलाते और स्टोर का अच्छी तरह से अवलोकन करते, अब जाँच- पड़ताल करने में क्या बुराई है!
ये तो स्टोर की एक तरफ़ की कहानी है, दूसरी तरफ़ पर तो पूरी फ़िल्म ही बन सकती है! उधर पुराने रद्दी अख़बारों और पत्रिकाओं का ढेर लगा रहता जो कबाड़ी वाले के इंतज़ार में दिन प्रतिदिन “कम्प्लेन चाइल्ड” से ग्रो कर रहा होता. हमें ये कहने को मन करता की अरे भई, कहीं ये ढेर बच्चे से सीधा बड़ा ना हो जाए- कृपया कबाड़ीवाले को बुला के इसे गुड्बाई कर दीजिए!
पर ये बात मन में ही रह जाती.
चलिए, अब आगे चलते हैं. कोई दस कदम आगे और तीन लम्बे -लम्बे आले जिन में हमारी पुरानी किताबों और कापियों का संग्रह होता! हम तो पास हो गए पर ये सब कब यहाँ से पास होंगी इसका जवाब सिर्फ़ दादी के पास ही होता.

“ इतनी क्या जल्दी है ये किताबें निकालने की! किसी के काम आ जाएँगी.”

इक्स्क्यूज़ मी दादी लगता है हमारे बच्चों के काम आएँगी! ये शब्द सिर्फ़ दिल में रह जाते पर डर के मारे ज़ुबान पर ना आ पाते.
इन आलों को आधा ढक रखा होता माँ के बड़े से लोहे के संदूक ने जो उनके संग शादी में आया था.ये संदूक कोई ख़ज़ाने से कम नहीं था- कितनी सुंदर चीजें होती थी जिनके दर्शन करना काफ़ी कठिन था.ये बेचारा संदूक पूरे साल दुनिया का तो नहीं पर गद्दों और दरियों का बोझ ज़रूर ढोता और सर्दियों में रज़ाइयों और मोटे-मोटे कम्बल को भी लाद दिया जाता इस मासूम पे!

बरसात में कभी-कभी जब यहाँ पानी टपकता तो पोस्ट्मन के ख़ाली कनस्तर रख दिया जाते और गर्मियाँ शुरू होते ही छत की मरम्मत भी की जाती.


दीन-हीन से स्टोर का सफ़ाई अभियान साल में सिर्फ़ दो चार बारी ही होता और इस में रखी कुछ चीजें तो एक ही सीज़न में ताजी हवा में साँस ले पाती.
उस लिस्ट में सबसे पहले नाम आता महीनों से धूल-धूसरित,मकड़ियों के जालों से सजा जंग लगे दरवाज़ों वाला नीले पैंट किया हुआ कूलर का! जब ये मटमैले रंग का कूलर हमारे घर आया था तो इसकी शान कुछ अलग ही थी- हर इतवार को इसका पानी निकाला जाता और अच्छे से सफ़ाई की जाती. इसकी तीन तरफ़ लगी हुई खस की पट्टियों वाले दरवाज़ों को धूप में रखा जाता, गीले कपड़े से सब साफ़ कर उसे फिर बरामदे में लगी खिड़की में फ़िक्स किया जाता. कहीं से भी गर्म हवा अंदर ना आ सके तो आस पास के गैप में पुराने अख़बार घुसा  दिए जाते. अब इतने बड़े कमरे को ठंडा करने का बोझ इस कूलर के नाज़ुक कंधों पर ही था!


जैसे ही पिताजी बटन ऑन करते हम सारे ठंडी हवा का आनंद लेने के लिए कूलर के सामने खड़े हो जाते. कितनी भीनी-भीनी ख़ुशबू आती, मन करता बस वहीं खड़े रहें. इतने में दादी के प्रवचन शुरू हो जाता “कमबख़्तों, सामने से हटो. मुँह घुस लिया कूलर में. बीमार पड़ जाओगे. आराम से चटाई पर बैठ कर खेलो!”
इस कूलर ने ना जाने कितनी गर्मियाँ हमारे साथ बितायीं-जब बिल्कुल ही साथ ना दे पाया तो स्टोर के एक कोने में रद्दी सामान के साथी बन गया.
अब तो सारे घर में ऐर- कंडिशनर ही है पर इसकी हवा में वो खस और केवड़े की भीनी सुगंध नहीं जो हमें हमारे बचपन के उन बेफ़िक्र, निश्चिंत दिनों में फिर से ले जाए.

Friday, March 5, 2021

दास्तान -ए- गोबर

हमारी हरकतों से सारा घर परेशान था- कभी कोई बदमाशी, तो कभी कोई! हमने सब की नाक में दम कर रखा था. कुसुम चाची के ऊन के गोलों की हम रंग- बिरंगी झालर बन कर अपने कमरे में लटका लेते, तो चाची माँ से शिकायत करती, “ क़सम से जीजी, ये बच्चे एक दिन बहुत पिटने वाले हैं- कमबख़्त ना जाने कब में ऊन उठा कर भाग जाते हैं पता ही नहीं चलता है. इनका स्वेटर पूरा ही नहीं कर पा रही हूँ.” और जैसे ही माँ हमारे कमरे की तरफ़ जैसे ही बढ़ती वैसे ही हम पीछे से जा कर उनसे ख़ूब ज़ोर से लिपट जाते और उन्हें ढेर सारा प्यार करते.
 “अब छोड़ो भी, बदमाशियाँ करते हो और फिर चाहते हो की मैं तुम्हें कुछ ना कहूँ. जाओ चाची से माफ़ी माँगो और उन्हें ऊन वापस क़रो. शायद मेरे पास पुरानी ऊन रखी है तुम्हें खेलने के लिए दे देती  हूँ .”

सबसे ज़्यादा मज़ा आता था हमें बन्नो बुआ के कमरे में! जैसे ही बुआ दाँये- बाँए होती, हम घुस जाते उनके कमरे में और वहाँ रखे सामान का निरीक्षण- परीक्षण शुरू कर देते. मुझे बुआ की श्रिंगार मेज़ पर रखी रंग- बिरंगी बॉटल बहुत सुंदर लगती थी. उन छोटी-बड़ी काँच की बोत्तलों में से कितनी भीनी- भीनी ख़ुशबू आती थी, झट से ढक्कन हटा हम खुद को फुआरों से भिगो देते थे. “ कमबख़्तों, सब सत्यानाश कर दिया! मेरी इम्पोर्टेड पर्फ़्यूम का तो ख़त्म ही कर दी! आज आने दो भैया को तुम्हारी मरम्मत करवाऊँगी!” बुआ की डाँट से बचते- बचाते हम भाग जाते गली में अपने दोस्त मंडली के पास खेलने और मस्ती करने के लिए. 

साहब! बुआ की डाँट से नहीं, पर पिताजी की कुटाई से हमें बहुत डर लगता था...

वहाँ जा के हम अपनी ख़ुराफ़ातों के क़िस्से शेयर करते और खूब हँसते- हम सब एक से बढ़कर एक थे! ऐसी- ऐसी बदमाशी करते के हमें खुद समझ नहीं आता था की हमारे अंदर इतनी क्रीएटिविटी आयी तो आयी कहाँ से! 


एक क़िस्सा तो मैं आपको ज़रूर सुनाना चाहूँगा- हुआ ऐसा की माँ के बम्बई वाले मामाजी हमारे यहाँ आए, वो नानाजी हमें कुछ ख़ास पसंद नहीं थे क्योंकि वो खूब सारा खाना खाते और फिर पूरे घर में पाद मार- मार के गंदी बदबू फैलाते और सारा वातावरण दूषित कर देतेजैसे ही कोई उन्हें टोकता झट से मुकर जाते, “ भई, मेरा पेट तो बिल्कुल सही है, तुम्हारा ही ख़राब होगा. तुम ही बाज़ार में अंट- शंट खाते हो और बदबू फैलाते हो.”


एक तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी !


हम सब ने सोच लिया था की नानाजी को बदबू का जवाब बदबू से ही देंगे.
हमारी गली के नुक्कड़ के पास बिल्ले चाचा का घर था और उन्होंने गाय- भैंस पाली हुईं थी. आसपास की गलियों में रहने उनके यहाँ से ताज़ा दूध लिया करते थे
अब जिधर गाय- भैंस उधर फ़्रेश गोबर भी!

हम चुपके से चाचा की डेयरी के पास गए जहाँ उनकी गाय- भैंस बंधी हुई थीं और नाक बंद और साँस रोक झट से ताज़ा गोबर प्लास्टिक की थैली में भर लिया. जैसे तैसे कर उसे घर में ला कर आँगन में लगे अनार के पेड़ के पीछे छिपा दिया ताकि किसी की नज़र उस पर ना पड़े वरना लेने के देने पड़ जाएँगेउस दिन ना जाने कितनी बार लाल वाली साबुन से हाथ रगड़-रगड़ कर धो डाले!

नानाजी ठूँस-ठूँस कर खाना खा कर सैर पर जाने की आदत थी. अब इतना ठूसेंगे तो वॉक पर जाना भी पड़ेगा ! हमारे पास यही एक मौक़ा था अपने काम को अंजाम देने का.धड़कते दिल से हम सबकी नज़रें बचाते हुए चुपके से उनके कमरे में घुस गए और परदे के पीछे से दुश्मन के इलाक़े का जायज़ा लिया। जैसे ही ऑल ओके का इशारा मिला वैसे ही चुन्नू नाक बंद कर गोबर से भरी प्लास्टिक की थैली ले आया.ये सब करना कोई आसान काम नहीं था- बंटू संतरी बन दरवाज़े पर तैनात था, बन्नू खिड़की से लगातार सब पर नज़र रखे हुए था और मन्नू और मैं इस काम को करने वाले थे- आख़िर टीम मैनज्मेंट भी तो कुछ होती है। हमने धीरे से ट्रंक खोल उसमें  गोबर की थैली रखकर बंद कर दिया। काम हो जाने के बाद हम सारे वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए.

आप सोच रहें होंगे क्या हमें यह सब करते हुए डर नहीं लगा? शायद लगा होगा पर जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना!


इतने में नानाजी की आवाज़ आयी, “ सुनिता, देख तो ज़रा ना जाने कौन कमबख़्त ये गोबर का थैला मेरे ट्रंक में रख ! सारे कपड़ों का सत्यनास कर दिया! इतनी गंदी बदबू आ रही कपड़ों से, अब सारे कपड़े कल धुलवाने पड़ेंगे. ज़रूर इन बच्चों ने ही ये बदमाशी की है- हाथ आने मेरे ख़ूब कूटूँगा इनको! 

जैसे ही सब हमारे कमरे में आए हम ने आँख-भींच मुँह-ढक लिया और सोने का ड्रामा चालू कर दिया ताकि हम शक की रडार पर ना आएँ - नींद तो एक बहाना थी हम तो असली पिक्चर शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे.  मुझे नहीं लगता इन बच्चों ने कुछ किया होगा, ये तो आज बहुत जल्दी सो गए थे. कल सुबह पता करते हैं की किसने किया था. कल मंगला आएगी उससे पूछूँगी, मैंने तो आपके इस्त्री किए हुए कपड़े रखने को कहा था ! 

ये कह कर माँ सब को हमारे कमरे से बाहर ले गयी

सुबह- सुबह जब हम उठे तो मालूम हुआ की नानाजी तारा मौसी के घर चले गए हैं और अब वहीं रहेंगे - हम तो ख़ुशी के मारे झूम उठेइतने में माँ अंदर आयी और बोली,  मैं सब जानती हूँ की तुमने कल क्या किया है, इस बार तो बचा लिया आगे से कोई इस तरह की हरकत मत करना वरना मुझ से बुरा कोई ना होगा!   

हम जानते हैं माँ की आप कभी भी हमारे लिए बुरी नहीं हो सकती क्योंकि माँ तो माँ होती है- बच्चे चाहे कितनी भी ग़लतियाँ करे वो तो हर मुसीबत के सामने ढाल बन कर खड़ी हो जाती है। शायद किसी ने सच ही कहा है, “ क्योंकि भगवान हर किसी के साथ नहीं हो सकते हैं इसलिए उन्होंने माँ की रचना की है !  

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...