हमारा घर कुछ अलग सा था, बहुत कुछ कहता और सुनता था- कुछ कहीं- अनकही बातें, क़िस्से और कहानियाँ, ढेर सी शिकायतें, प्यार- मोहब्बत से भरे अल्फ़ाज़ और बहुत कुछ जाना-अनजान सा.
ये मकान दादाजी के पिताजी ने बनवाया था- जानते हैं कितना बड़ा है ये! बिट्टू चाचा की शादी में खूब सारे मेहमान आए थे और सब के सब यहीं रहे थे- कितना मज़ा किया था सबने मिलकर. सुना है ये बहुत पुराना है, दादाजी के दादाजी जितना पुराना- तो फिर हुआ ना अंग्रेजों के टाइम का! गली में सबसे बड़ा तिमंज़िला मकान था ये, आजू-बाजू और बहुत से मकान थे पर इसके जितना बड़ा कोई भी नहीं था. गली के नुक्कड़ से ही हमारा हलके पीले-सफ़ेद रंग की सफ़ेदी और मटमैले नीले रंग के दरवाज़ों वाला मकान नज़र आ जाता था.
पंसारी की दुकान पर माँ के समान की लिस्ट जैसे ही पकड़ाते तो झट से वो हमें पहचान लेता. “ पीले-सफ़ेद रंग के बड़े मकान वाले डॉक्टर साहब के पोते हो ना? अभी कुछ देर में लड़के के हाथ समान भिजवाता हूँ.” कमाल है, पंसारी की याददाश्त की- मकान के रंगो से मुझे पहचान लिया! धोबी के पास इस्त्री के लिए कपड़े देने जाते तो वो एकदम देखते ही बोलता, “ मटमैले नीले दरवाज़े वाले मकान में रहते हो ना!डॉक्टर साहब को मेरी राम-राम बोलना.” वो तो मैं बोल दूँगा पर लगता है कि हमारे घर की सफ़ेदी और दरवाज़ों का पेंट पूरी गली में वर्ल्ड फ़ेमस है!
हमारे घर के आँगन में लम्बी-लम्बी क्यारियों में अनार और अमरूद का पेड़ लगे थे जिन पर पर सुबह से लेकर शाम तक ढेरों चिड़ियों की रौनक़ लगी रहती थी. अक्सर उन पर तोते, बुलबुल और मैना का भी आना-जाना लगा रहता, पूरे दिन पक्षियों का मेला सा लगा रहता. पेड़ों के साथ वाली छोटी क्यारियों में माँ ने तरह-तरह की सब्ज़ियाँ लगा रखी थी. “ आँगन से मुझे टमाटर तोड़ कर ला दे. देख ध्यान से तोड़ना, ज़ोर से खींच कर पूरा पौधा मत हिला देना.” ओके माँ! यह बोल कर मैं झट से भाग जाता आँगन में और जानते हैं कितना मज़ा आता लाल टमाटरों को तोड़ने में! वही साथ में हरी मिर्च के पौधे और लौकी की बेल थी- जिस में खूब बड़ी-बड़ी लौकी आती थी और अक्सर हमारे साथ-साथ पड़ोसियों के घर भी रवाना की जाती.
सब्ज़ियों की क्यारियों के पास गुलाब, चम्पा, चमेली,गुलदाऊदी के फूल वाले पौधे लगे थे- आँगन भीनी-भीनी ख़ुशबू से महकता रहता था. गर्मियों में पेड़-पौधों को पानी देने के बाद पूरे आँगन को ठंडा करने के लिए पानी से धोया जाता तो चारों तरफ़ कितनी प्यारी महक फैल जाती. बारिश के दिनों में छोटे-छोटे घोंघे, मिट्टी को ऊपर-नीचे करते हुए केंचुए,हरी टिड्डियों, रंग-बिरंगी तितलियों को देखने में हमरा सारा समय बीत जाता. हम अपने इस बड़े घर में हर मौसम का ख़ूब मज़ा लेते- चाहे गरमी हो या सर्दी, हमारे लिए हर दिन ख़ूब मज़े का होता था.
आँगन से सटे बरामदे में झूला लगा हुआ था- ये हम सब का फ़ेवरेट था. झूले पर बैठ कर हम पूरे आँगन का नज़ारा लेते और हवा के संग खूब बातें करते, ऐसा जान पड़ता था मानो हम कहीं सैर पर निकले हुए हैं. बरामदे में चार बड़े-बड़े रोशनदान थे जिसने मियाँ कबूतर अपने परिवार के साथ रहते और जो दादी को बिल्कुल भी पसंद नहीं थे. “दादी ये तो मुफ़्त का किरायेदार है, ये ना किराया देगा !” अब दादी से ऐसा कहने का मन होता पर हिम्मत नहीं.
रोशनदान के ठीक नीचे लगी थी नीले कपड़े की लाइनिंग वाली चिक- जिनका रंग नीले से मटमैला हो गया था. गर्मियाँ शुरू होते ही दोपहर से पहले चिकों को नीचे कर दिया जाता ताकि कमरे और दालान ठंडा रह सके. कितना अच्छा लगता था- जब बाहर आँगन धूप से तप रहा होता तब बरामदे में लगा लाल कोटा पत्थर का फ़र्श ठंडा रहता. चिकों से छन कर आती हुई हल्की-हल्की सूरज की रोशनी से पूरा बरामदा सुंदर, सुनहरा हो जाता था. हम चटाई पर औंधे पड़े सूरज की रोशनी को अपने हाथों में पकड़ने की कोशिश करते और जब नहीं पकड़ पाते तो चटाई से निकली तीलियों को खींच कर उनसे ही खेलने लग जाते. तभी दादी की कर्णभेदी आवाज़ आती, “ नासपीटों, सारी चटाई ख़राब कर डाली, हर समय कुछ ना कुछ बदमाशी करते रहते हो.” दादी के डर से तीलियाँ वहीं फेंक हम अंदर कमरे में आ चुपचाप खेलने लगते. अब दादी से पंगे, नो वे!
बरामदे के साथ सटे हुए हर कमरे की अलग सी कहानी थी, कुछ बातें वहाँ रखा समान करता तो कुछ अफ़साने सुनती पुताई करीं हुई दीवारें. हमारे लिए तो जैसे सारा जहान इस घर में ही सिमट आया था! आँगन से लेकर छत तक, नीचे के कमरों से लेकर ऊपर के कमरों तक हर जगह सिर्फ़ हमारा राज था- कभी दादी की डाँट,कभी दादाजी का प्यार, कभी माँ का दुलार, कभी बन्नो बुआ से नौक-झोंक, कभी पिताजी की फटकार और ना जाने कितने रंग़ो से निखरा और संवरा हुआ तो गली के नुक्कड़ वाला ये तीनमंज़िला मकान!
हर घर कुछ कहता भी है, सुनता भी है और समझता भी है- आपस का प्यार, शिकवे-शिकायतें और बहुत कुछ जो कभी कहा नहीं और कभी सुना नहीं...
क्या आपका घर भी कुछ कहता है?
बहुत ख़ूबसूरत बिंदु. उस ज़माने के हर घर की कहानी है ये. वो घर जो साँस लेते थे, मेहसूस करते थे और ज़िंदगी से भरपूर थे. बहुत अच्छा लिखा.
ReplyDeleteधन्यवाद प्रवीण! बिलकुल सही कहा उस ज़माने के घर दिल के तारों से जुड़े थे और जज़्बातों से भरपूर थे और आजकल के घर सिर्फ़ ख़ालीपन और सामान से भरे हैं।
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