Friday, October 6, 2017

चटपटा-चटकारेदार

अब जिस बात के लिए मना कर जाता है उसे करने में अलग ही मज़ा आता है।अब यह ना सोचिए हमें कम सुनता था,सही सुनता था पर दिमाग़ में कुछ टिकता नहीं था!अम्माँ के लाख मना करने पर भी चोरी-चुपके छत पर पहुँच जाते और फिर जो धमाल मचाते पूछिये मत! दादी की गालियों, बन्नो बुआ की लानतों, माँ के मनुहार का हम पर कोई असर नहीं होता।

दरअसल,वो एक विशेष समय था जब हमारा छत पर "प्रवेश निषेध" था-विशेषकर गरमियों के दिनों में।आप सोच रहे होंगे क्यों? थोड़ा धीरज धरिए, अभी बताती हूँ- उस समय घर में कुछ अलग ही नज़ारा होता।घर की बरनियों धूप सेंक रहीं होती, पिसी हुई दालें रखी होती,कटा हुआ नींबू,आम,मिर्च एक तरफ़ रखा होता।अलग-अलग मसालों की सुगंध से पूरा रसोई घर महक रहा होता।माँ आलू के चिप्स बनाने के लिए आलू उबाल रही होती, तो दूसरी तरफ़ बन्नो बुआ ठीक से पापड़ ना बेलने के लिए दादी से डाँट खा रही होती।


फिर नमक लगी नींबू और आम की फाँके,दाल और साबूदाने के पापड़,मसाले से भरी लाल और हरी मिर्च रवाना होते छत की तरफ़ और हम सब उनके पीछे-पीछे! दूध की थैलियों से बनाई हुई लम्बी- लम्बी चादरों पर इन्हें सूखने के लिए छोड़ा जाता।पर, घरवालों को क्या मालूम की हमारे हाथ क़ानून से भी लम्बे हैं! हम चोरी से जा कर आम और नींबू की फाँकें ले आते और ख़ूब चटखारे ले-ले कर खाते। यहाँ तक की कच्चा पापड़ भी नहीं छोड़ते थे! 

जब चोरी करते हुए पकड़े जाते तो आम और नींबू के साथ तमाचे का स्वाद भी चखने को मिलता.. जो आज तक हमें अपने बचपन की याद दिलाता है।

2 comments:

  1. This is nice and I like the way it's been written. Nice style.

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    1. Thanks. It is just an attempt to use simple writing style which connects with all.

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