Tuesday, October 3, 2017

मेरी नई पहचान

मैं आज आप के साथ एक बहुत ही मज़ेदार क़िस्सा शयेर करता हूँ।हो सकता है ऐसा कांड आप में से किसी के साथ शायद हुआ हो या ना भी हुआ हो।

उस दिन तो मुझे बहुत ही अजीब लग रहा था- ऐसा जान पड़ता था की किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा! आस पास सब बदल सा गया था, सब कुछ साफ़-साफ़, बिलकुल नया सा मालूम होता था.बीच -बीच में ऐसी भी फ़ील आ रही थी की मानो मैं मून वॉक कर रहा हूँ। एकदम ही अलग नज़ारा था! मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं हँसू या रोऊँ। मेरी तो मानो ज़िंदगी ही बदल गयी थी।

अब यह तो मेरी सोच थी।यह सब उधेड़- बुन तो मेरे दिमाग़ में चल रही थी पर आसपास तो कुछ और खिचड़ी पक रही थी।मेरे घरवालों को तो मैं एकदम बुद्धिजीवी जैसा दिख रहा था और दोस्तों को कुछ बदला हुआ सा, ज़रा हट के टाइप्स! सब अपनी-अपनी विशेष टिप्पणी देने में लगे हुए थे।सबसे ज़्यादा ग़ज़ब तो बन्नो बुआ ने ढा दिया!मुझे देखते ही माँ से बोली,"इतनी छोटी उम्र में यह क्या हो गया भाभी!अब इससे कौन ब्याह करेगा?" बुआ की इस बात से तो मुझे झटका ही लग गया।अरे भाई कोई मुझसे भी तो पूछो की मुझे कैसा लग रहा है? इस से तो किसी को कोई मतलब नहीं, सब अपने अपने कॉमेंट देने में ही लगे थे.


बड़ी मुश्किल से पिताजी के साथ गया था शाम को दुकान पर - जिस दिन वो कांड हुआ था. उस रोज़ तो कमाल हो गया, दूर से आते हुए पिताजी को नहीं पहचाना और उन्हें "नमस्ते अंकलजी" कह कर आगे निकल गया! फिर घर पर जो क्लास लगी तो सीधे पहुँचाये गए चश्मे की दुकान पर- जहाँ दूर लगी पट्टी पर लिखी छोटी-बड़ी abcd को पढ़ भी ना पाए. तो पता चला की दिमाग़ नहीं पर आँखें ज़रूर कमज़ोर हैं!

फिर क्या था काले फ़्रेम वाला चश्मा मेरा साथी और मेरी नई पहचान बन गया इस दुनिया को साफ़-साफ़ देखने और समझने के लिए...

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