हम बच्चे मेहमानों का बहुत ही बेसब्री से इंतज़ार करते थे. ना, ना हमारे लिए वो "अतिथि देवो भव:" नहीं होते थे परन्तु बढ़िया खाने का संकेत होते थे! सुबह दादी और माँ चाय की चुस्कियाँ लेते हुए लम्बे - लम्बे डिस्कशन करती और शाम की दावत का मेन्यू डिस्कस करती. किराने की दुकान से क्या, कब और कितना माँगना है - उसका गणित तो सिर्फ़ यह दोनों ही अच्छे से जानती थी! हम सब अक्सर रसोईघर के आस पास ही टंगे पाए जाते थे क्योंकि पकवानों की ख़ुशबू हमें ऐसे खींचती जैसे पतंग को डोर!
शाम तक रसोईघर से मज़ेदार पकवानों की ख़ुशबू पूरे आँगन को महका रही होती और हम बच्चे जाली के दरवाज़े पर लटक- लटक कर मेहमानों की राह देख रहे होते. उत्सुकता उनसे मिलने की नहीं होती थी पर यह जानने की रहती थी कि वे हमारे लिए किया ले कर आएँगे.हमारे यहाँ हर टाइप के मेहमान आते थे- कुछ महा कंजूस जो मुर्दा से दिखने वाले एक दर्जन केले लाते थे, कुछ गिनती के छह सेब,कुछ तो नुक्कड़ वाले हलवाई की बेस्वाद बर्फ़ी, लड्डू या ढाई सौ ग्राम बूंदी।उनकी कोशिश यही रहती थी की सबसे सस्ती मिठाई ही घर ले कर आयें और ऐसे मेहमान हमें बिलकुल पसंद नहीं थे!हमें तो वो मेहमान पसंद थे जो हमारे लिए बिस्कुट,केक और बढ़िया खाने का समान लाते थे।
जैसे ही गली के नुक्कड़ पर वे दिखते, हम ख़ुश हो जाते और भाग कर घर में उनके आने की घोषणा कर देते.मेहमानों के कमरे में बैठते ही माँ और दादी खाने की तैयारी शुरू कर देती और पिताजी उनसे बातें।हम इस ताक में रहते के कब वो अपने थैले में से हमारे लिए समान निकाल कर देंगे।मगर,उनके हाथ तो थैले तक पहुँचते ही नहीं थे! हम भी ढीठ!वहाँ ही घूमते रहते इस उम्मीद में की शायद अब हमें अंदर बुला ले।
"भुक्कड़ों की तरह वहाँ टंगे मत रहना!" माँ ने यह बात सुबह ही समझा दी थी।पर हम तो वहीं टंगे हुए थे, हमें डाँट खाने की आदत जो थी!
खा- पी कर जैसे ही वे दरवाज़े की ओर,तो हम कमरे की ओर- हम गिफ़्ट और खाने की ताक में! बिलकुल वैसे ही जैसे शेर अपने शिकार के तरफ़ बढ़ता है।इधर हमने जैसे ही प्लेट में रखे समोसों की तरफ़ हाथ बढ़ाया, वैसे ही बन्नो बुआ की कड़क आवाज़ आयी," रुको ज़रा, अभी तुम्हारी ख़बर लेती हूँ।मेहमान गए नहीं की ये बदमाश आ गए !"
हाय री क़िस्मत! हमें तो सिर्फ़ बुआ की डाँट के चटकारे मिले, समोसे तो प्लेट पर यूँही धरे के धरे ही रह गये...
शाम तक रसोईघर से मज़ेदार पकवानों की ख़ुशबू पूरे आँगन को महका रही होती और हम बच्चे जाली के दरवाज़े पर लटक- लटक कर मेहमानों की राह देख रहे होते. उत्सुकता उनसे मिलने की नहीं होती थी पर यह जानने की रहती थी कि वे हमारे लिए किया ले कर आएँगे.हमारे यहाँ हर टाइप के मेहमान आते थे- कुछ महा कंजूस जो मुर्दा से दिखने वाले एक दर्जन केले लाते थे, कुछ गिनती के छह सेब,कुछ तो नुक्कड़ वाले हलवाई की बेस्वाद बर्फ़ी, लड्डू या ढाई सौ ग्राम बूंदी।उनकी कोशिश यही रहती थी की सबसे सस्ती मिठाई ही घर ले कर आयें और ऐसे मेहमान हमें बिलकुल पसंद नहीं थे!हमें तो वो मेहमान पसंद थे जो हमारे लिए बिस्कुट,केक और बढ़िया खाने का समान लाते थे।
जैसे ही गली के नुक्कड़ पर वे दिखते, हम ख़ुश हो जाते और भाग कर घर में उनके आने की घोषणा कर देते.मेहमानों के कमरे में बैठते ही माँ और दादी खाने की तैयारी शुरू कर देती और पिताजी उनसे बातें।हम इस ताक में रहते के कब वो अपने थैले में से हमारे लिए समान निकाल कर देंगे।मगर,उनके हाथ तो थैले तक पहुँचते ही नहीं थे! हम भी ढीठ!वहाँ ही घूमते रहते इस उम्मीद में की शायद अब हमें अंदर बुला ले।
"भुक्कड़ों की तरह वहाँ टंगे मत रहना!" माँ ने यह बात सुबह ही समझा दी थी।पर हम तो वहीं टंगे हुए थे, हमें डाँट खाने की आदत जो थी!
खा- पी कर जैसे ही वे दरवाज़े की ओर,तो हम कमरे की ओर- हम गिफ़्ट और खाने की ताक में! बिलकुल वैसे ही जैसे शेर अपने शिकार के तरफ़ बढ़ता है।इधर हमने जैसे ही प्लेट में रखे समोसों की तरफ़ हाथ बढ़ाया, वैसे ही बन्नो बुआ की कड़क आवाज़ आयी," रुको ज़रा, अभी तुम्हारी ख़बर लेती हूँ।मेहमान गए नहीं की ये बदमाश आ गए !"
हाय री क़िस्मत! हमें तो सिर्फ़ बुआ की डाँट के चटकारे मिले, समोसे तो प्लेट पर यूँही धरे के धरे ही रह गये...
I've my sympathies. I can't imagine such distance from a plate-full of samosas.
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