सुबह उठते ही जब गली में झाँका तो देखा बड़ी -बड़ी बल्लियाँ पड़ी हुई हैं, लाल-पीले रंग का तंबू लगाया जा रहा है, लाल कपड़े वाली ऐल्यूमिनीयम की कुर्सियाँ सलीक़े से रखी जा रही है और सब काम ख़ूब ज़ोरों-शोरों से चल रहा है।भाग कर माँ के पास पहुँच तो मेरी जिज्ञासा शांत करने की बजाय, माँ ने मुझे जल्दी से नहाने के लिए ऑर्डर दे दिया दिया।" जल्दी नहा ले, सामने वाली कविता का ब्याह है- उसके कुछ रिश्तेदार हमारे यहाँ आएँगे नहाने के लिए ." अरे भई, ब्याह उसका और जल्दी नहाऊँ मैं, यह कोई बात है क्या!"
नहा कर तैयार हुआ तो बंटू आ गया।" अबे कब से तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ, अब तक नहीं नहाया तू ? जल्दी चल मेरे साथ,पार्क के पास हलवाई कितनी बढ़िया -बढ़िया मिठाई बना रहे हैं ।" वहाँ तो एक अलग ही नज़ारा था - कहीं मोतीचूर के लड्डू बन रहे थे, कहीं गुलाबजामुन, तो कहीं पूरी -कचौरी का आटा तैयार किया जा रहा था, बड़ी -बड़ी कढ़ाइयों में ख़ुशबूदार पकवान बनाए जा रहे थे । हलवाई जल्दी -जल्दी अपना काम करने में लगे हुए थे।एक कोने में खड़े सिंह अंकल सबसे ज़्यादा परेशान दिख रहे थे- उनकी डाँट के बाद भी काम थोड़ा सुस्ती से हो रहा था।पर जैसे ही सिंह अंकल ने ही हमें देखा तो वही से चिल्लाए," तुम क्या करे रहे हो यहाँ पर? भागो यहाँ से! अगर कोई बदमाशी की तो टाँगे तोड़ दूँगा!"
हद हो गयी, हम तो सिर्फ़ नज़ारे का जायज़ा लेने आए थे, अंकल ने तो हमारी बेज़्ज़ती कर दी।अब हम तो ठहरे सबसे बड़े खिलाड़ी- अब कुछ ना कुछ तो चख के जाना ही था। लेकिन हर तरफ़ नज़रें ही नज़रें! बच कर निकला नामुमकिन ही नहीं ,मुश्किल भी था।मोटी तोंद वाले हलवाई के पीछे रखे थाल में सजे केसरिया बूंदी के लड्डू हमें इशारा करके अपनी तरफ़ बुला रहे थे, आँखों ही आँखों में उनके और हमारे बीच में ढेर सी बातें हो गयी थी! हमने भी ठान लिया था जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना! धीरे -धीरे करके हम दुश्मन छावनी में दाख़िल तो हो गए पर अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए यह निर्णय लिया की मेज़ के नीचे छिपे रहने में ही भलाई है।मौक़ा देख कर ही चौका लगाएँगे।
थोड़ी देर बाद ऐसा आभास हुआ की कुछ शांति सी है और हमारे लिए सही वक़्त भी। मेज़ के नीचे से हाथ लड्डू के थाल तक पहुँच तो गया, पर दिल्ली अभी दूर थी! इससे पहले की लड्डू हमारे मुख द्वार के तरफ़ अग्रसर होता, पिताजी के भारी हाथ ने हमें नीचे से ऊपर खींचा और लड्डू की जगह उनकी धुलाई से हमारा ऐसा मुँह मीठा हुआ की कविता की शादी में कोई मिठाई खाने के लायक ना रहे!
नहा कर तैयार हुआ तो बंटू आ गया।" अबे कब से तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ, अब तक नहीं नहाया तू ? जल्दी चल मेरे साथ,पार्क के पास हलवाई कितनी बढ़िया -बढ़िया मिठाई बना रहे हैं ।" वहाँ तो एक अलग ही नज़ारा था - कहीं मोतीचूर के लड्डू बन रहे थे, कहीं गुलाबजामुन, तो कहीं पूरी -कचौरी का आटा तैयार किया जा रहा था, बड़ी -बड़ी कढ़ाइयों में ख़ुशबूदार पकवान बनाए जा रहे थे । हलवाई जल्दी -जल्दी अपना काम करने में लगे हुए थे।एक कोने में खड़े सिंह अंकल सबसे ज़्यादा परेशान दिख रहे थे- उनकी डाँट के बाद भी काम थोड़ा सुस्ती से हो रहा था।पर जैसे ही सिंह अंकल ने ही हमें देखा तो वही से चिल्लाए," तुम क्या करे रहे हो यहाँ पर? भागो यहाँ से! अगर कोई बदमाशी की तो टाँगे तोड़ दूँगा!"
हद हो गयी, हम तो सिर्फ़ नज़ारे का जायज़ा लेने आए थे, अंकल ने तो हमारी बेज़्ज़ती कर दी।अब हम तो ठहरे सबसे बड़े खिलाड़ी- अब कुछ ना कुछ तो चख के जाना ही था। लेकिन हर तरफ़ नज़रें ही नज़रें! बच कर निकला नामुमकिन ही नहीं ,मुश्किल भी था।मोटी तोंद वाले हलवाई के पीछे रखे थाल में सजे केसरिया बूंदी के लड्डू हमें इशारा करके अपनी तरफ़ बुला रहे थे, आँखों ही आँखों में उनके और हमारे बीच में ढेर सी बातें हो गयी थी! हमने भी ठान लिया था जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना! धीरे -धीरे करके हम दुश्मन छावनी में दाख़िल तो हो गए पर अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए यह निर्णय लिया की मेज़ के नीचे छिपे रहने में ही भलाई है।मौक़ा देख कर ही चौका लगाएँगे।
थोड़ी देर बाद ऐसा आभास हुआ की कुछ शांति सी है और हमारे लिए सही वक़्त भी। मेज़ के नीचे से हाथ लड्डू के थाल तक पहुँच तो गया, पर दिल्ली अभी दूर थी! इससे पहले की लड्डू हमारे मुख द्वार के तरफ़ अग्रसर होता, पिताजी के भारी हाथ ने हमें नीचे से ऊपर खींचा और लड्डू की जगह उनकी धुलाई से हमारा ऐसा मुँह मीठा हुआ की कविता की शादी में कोई मिठाई खाने के लायक ना रहे!
Your posts transport me to those good old days. We were so naive and found pleasure in smallest of things. Beautiful posts.
ReplyDeleteThanks a lot!
DeleteThat is so true, to us simple things gave immense happiness and joy.