हमारे घर के पास एक पीपल का पेड़ था और एक नीम का- फ़र्क़ इतना था कि पीपल का पेड़ घर के बाहर था और नीम का किसी घर के आँगन में. सारे दिन दोनों पेड़ों पर शोर- शराबा रहता था. कौवे, कबूतर, चिड़िया चील, गौरिया, फ़ाख्ता, कोयल, मैना और ना जाने दूसरे कौनसे पंछी आना - जाना करते रहते थे. हमारे लिए तो यह बहुत ही इंट्रेस्टिंग होता था और हमारी यही कोशिश रहती थी कि हम उनके अंडे और बच्चे देखें .किंतु, परंतु पेड़ पर चढ़ना उसकी बिलकुल इजाज़त नहीं थी!
वो पीपल का पेड़ तो जैसे हमारे मोहल्ले का निगरानी केंद्र था। सुबह से शाम तक पंछियों की गुफ्तगू, उनके बीच की चहचहाट और कभी-कभी तो आपसी झगड़े भी. वो पेड़ जैसे एक छोटे शहर का रूप धारण कर लेता, जहां हर पंछी की अपनी एक कहानी होती, अपनी एक दास्तान.
वहीं दूसरी ओर, नीम का पेड़ जो पंकज भैया के घर के आंगन में था, वहां का माहौल थोड़ा शांत रहता। शायद इसलिए क्योंकि यह पेड़ घर के भीतर होने के कारण पंछियों को ज़्यादा सुरक्षा का एहसास दिलाता था। नीम के पेड़ पर बने घोंसले में छोटे छोटे बच्चे और अंडे देखना हम मासूम बच्चों के लिए शायद बहुत ही रोमांचकारी होता पर इसकी हमें इजाज़त नहीं थी.
एक बार की बात है, हम सब ने मिलकर तय किया की 'इनफ़ इस इनफ़' हमें तो घोंसले में झांकना ही है चाहे कुछ भी हो जाए। हमने सोचा क्यों ना कहीं से एक सीढ़ी का इंतज़ाम किया जाए जिसकी मदद से हम अंडे और बच्चे देख सकते हैं।राजू को घेर कर हमने कन्विन्स किया उसे अपने घर से सीढ़ी लानी होगी क्योंकि उषा मौसी उसे किसी भी बात के लिए मना नहीं करती थी.अब बेचारा मरता क्या ना करता।
अंडर प्रेशर! हाँ नहीं करता तो मरता ना करेगा तो खूब पिटेगा. उस बेचारे के लिए आगे कुआँ पीछे खाई वाली स्थिति थी! लम्बी सीढ़ी लाना कोई जोक नहीं पर उसके पास कोई चॉस भी नहीं थी. हम सबने डिसाइड किया हम उसके साथ जाएँगे और सीढ़ी ले कर आएँगे. तब जब दोपहर में जब सब बड़े सो रहे होते हैं।
सिम्प्ली बेकोज जून की भयंकर गर्मी में हम मूर्खों के अलावा किसी को बाहर होने का कोई शौक़ नहीं.
अब लुका- छिपी करके हम उसके घर पहुँचे- पर सबसे बड़ा चैलेंज सीढ़ी को घर से बाहर निकालना. कैसे करेंगे इतना बड़ा काम!! हम अभी कुछ सोच ही रहे थे तो क्या देखतें हैं सामने के कमरे से उसकी दादी आ रहीं है. “ ओ निकम्मों क्या सिकट दोपहरी में घूमते रहते हो. सूरज बौराया हुआ है और तुम धूप में मारे- मारे फिर रहे हो- चलो अपने अपने घर जाओ. राजू, तू चल और स्टोर में मेरे साथ समान रखवा.” व्हाट! दादी ने तो तेज़ बातों की गोली बारी कर दी. अब क्या करेंगे. इतने में राजू बोला,"अबे तुम मुझे मरवाओगे, सीढ़ी लो और दफ़ा हो जाओ. मुझे नहीं आना तुम्हारे साथ. माँ पूछेंगी तो कह दूँगा - पंकज भैया ने अपने घर मँगवाई थी - बिल्लू ले गया.”
ये क्या इसने तो हमें बीच में छोड़ दिया पर कोई बात नहीं ‘ हम किसी से कम नहीं, कम नहीं!’ ये गाते हुए हमने सीढ़ी उठाई और चल दिये मंज़िल की और जो हमें बाहें फैलाये पुकार रही थी जून की गरम दुपहरिया में! गली में सन्नाटा क्योंकि सब लोग अपने घरों में थे और हमारे जैसे निकम्मे ( यस, यू हर्ड इट राइट!) पंकज भैया के आँगन में!
पहले सब एक दूसरे के घरों में यूँ ही आना - जाना करते थे, कोई रोक टोक नहीं थी और भैया के घर तो बिलकुल भी नहीं. भाभी और बड़ी बुआ अंदर थे और हम सब आँगन में.
जैसे ही सीढ़ी को पेड़ से टेका तभी भाभी की आवाज़ आयी, “ पप्पू, तुम सब आँगन में हो क्या? बेटा, धूप में मत खेलो- शाम को आना.”
“ बस भाभी अभी जा रहें हैं पाँच मिनिट में” ये कह कर हम ने सीढ़ी पर चढ़ने के लिए टिक्की को राज़ी कर लिया. अब टिक्की सबसे ज़्यादा फट्टू था और हम सब उससे कहीं ज़्यादा!
मगर लालच बड़े - बड़ों को डरपोक को फ़ीयरलेस बना देता है. और हमारे टिक्की भाई के साथ भी यही हुआ.
हमने उसके साथ एक डील करी कि अगर वो अगर ऊपर चढ़ के गौरैया का अंडा लेकर आएगा तुम हम सब उसे एक बड़ी कैडबरी चॉकलेट और एक बॉल देंगे. वो तो बस इतने में बिक गया और बोला, “ मैं एक क्या दो अंडे लेकर आऊँगा!” भई मान गये अपने फट्टू टिक्की को.
टिक्की धीरे-धीरे ऊपर पहुँचा ताकि घोंसले को नज़दीक से देख सकें- और वहाँ से उसने आँखों देखा हाल बयान करना शुरू कर दिया-
“घोंसले में जो नज़ारा दिखा, वो बेहद ही प्यारा है. छोटे छोटे फ़ाख़्ता के बच्चे जिनकी चोंच अभी पूरी तरह से नहीं बनी थी, वो अपनी माँ का इंतजार कर रहे हैं. तीन अंडों में से बच्चे निकले नहीं हैं और मैं दो अंडे लेकर नीचे आ रहा हूँ!”
“ अरे यार मुझे भी दिखा दो, पीछे से चिंटू चीखा!” “ अभी रुक पहले हमें देखने दे - नितिन ने पलट कर जवाब दिया।”
नीचे एक दम कोहराम मच गया और उस का नतीजा मैं आपके साथ शेयर ना करूँ तो बेहतर है क्योंकि, ‘ ग़ैरों से क्या नाराज़गी यहाँ तो अपनों ने रुसवा कर दिया!’ मेरे अपने यानी मेरे यार दोस्त उन्होंने ऐसा हड़कंप मचाया कि बेचारा टिक्की ही बलि का बकरा बन गया.
आपा- छापी में सीढ़ी को अनाथ कर दिया और टिक्की को अकेला, जो बेचारा अंडों सहित धरती पर गिरा! अंडों के साथ उसका माथा फूटा और हमारी क़िस्मत.
आगे की दास्तान बेहद दुखियारी है - इस कांड के पश्चात हमारी जो मरम्मत हुई वह केवल हम जानते हैं और बची हुई छुट्टियाँ अच्छे बच्चों जैसे होमवर्क करते हुए गुज़री…
ये क़िस्सा हम शायद कभी नहीं भूलेंगे क्योंकि टिक्की के अनुसार, 'दोस्त दोस्त ना रहे, सीढ़ी पकड़ना भूल गए और मेरा माथा फुड़वा गए!'