Saturday, September 30, 2017

पुराना साथी

बरामदे के कोने में पड़ा बेचारा- अकेला और बेहद थका हुआ. मैं उसे हर दिन स्कूल से आते - जाते देखा करता था। मुझे उस पर बहुत तरस आता था, पर मैं कर भी क्या सकता था।"मेरी तो इस घर में कोई सुनता ही नहीं है, सबसे छोटा हूँ ना! सिर्फ़ दादू की चलती है इस इतने बड़े घर में, बाक़ी तो बस उनकी आज्ञा का पालन ही करते हैं। हुँह! मुझे भी बड़ा होकर दादू ही बनना है ताकि मैं भी सब पर रौब जमा सकूँ।"

मैं बताऊँ आपको, एक ज़माने में इसके भी बड़े ठाठ होते थे। जब नया -नया आया था- एक दम शानदार और रौबदार! हर कोई इससे मिलने की फ़िराक़ में रहता था, पर मजाल है की बाबूजी किसी को इसके पास भी फटकने देते। सबको अपनी दमदार आवाज़ में डाँट कर भगा देते। उन दिनों इसकी बहुत इज़्ज़त थी- बाबूजी इसके बिना कहीं जाते नहीं थे-चाहे गरमी हो या बरसात। बड़े भैया भी कभी- कभी बाबूजी की इजाज़त लेकर इसे साथ ले जाते। अम्माँ तो बिना मंदिर नहीं जाती थी। छोटी चाची के साथ ये बाज़ार जाता था। और बन्नो बुआ तो कमाल ही थीं! जानते हैं,वो तो बाबूजी की इजाज़त के बिना ही इसे अपने साथ अक्सर शॉपिंग ले जाती।कभी पड़ोस वाले डॉक्टर शर्मा बाबूजी से पूछ कर इसे अपने साथ ले जाते थे।



सबसे ज़्यादा व्यस्त रहता था ये। 

फिर धीरे-धीरे वक़्त गुज़रता गया, चीज़ें बदलती गयी और हमारी ज़िंदगी में उसकी अहमियत भी कम होती चली गयी। हम बड़े हो गए, अपनी रोज़ की ज़िंदगी में इतना मशगूल हो गए की पुरानी बातों और चीज़ों के लिए वक़्त ही नहीं रहा।अब तो कोई उसकी तरफ़ देखता भी नहीं- वक़्त बदल गया और लोग भी। बहुत ही दुःख की बात है जो कल तक सबका साथी था, आज कितना दुखी और उपेक्षित है.

दादाजी का काला छाता-फटा हुआ, धूल से भरा और एक दम अकेला...

Thursday, September 28, 2017

फ़िल्मी चक्कर

हम जानते थे कि हमें बहुत डाँट पड़ेगी, फिर भी हम सब ने सोच लिया था की चाहे कुछ भी हो जाये हम किसी को कुछ भी नहीं बताएँगे।एक दूसरे को भगवान की क़सम तक दे डाली, ज़रा सोचिये ऐसी क्या बात रही होगी! आपस में पक्की साँठ- गाँठ कर ली थी।ऐसे कैसे हो सकता की कोई हमारे इस राज को हमसे उगलवा पाए।

चलिए कुछ देर में इसका भी ख़ुलासा करती हूँ। अब आगे पढ़िए...सब मिलकर सोचने लगे की इस काम को कैसे पूरा करेंगे.किसी ने बोला दोपहर का वक़्त सबसे बढ़िया जब घर वाले आराम करते हैं,कोई बोला अगर ज़्यादा देर हो गयी तो मार पड़ेगी। इतने कहीं से आवाज़ आयी हमें एक राज़दार चाहिए। सोच-विचार करने के बाद एक ही नाम सामने आया- माँ! अब माँ तो माँ होती है ना! ग़लत हो या सही माँ तो हमेशा ही हर कष्ट से बचाती है! फिर क्या,हमने माँ को अपना राज़दार बनाया और सब जाने के लिए तैयार हो गए।

सब सजधज कर कितने प्यारे बच्चे लग रहे थे! बस जल्दी से जल्दी घर से निकलना चाहते थे, कहीं ऐसा ना हो बन्नो बुआ हमें पकड़ ले और फिर दरोग़ा जैसे हमसे पूछताछ करने लगे । फिर क्या था हम सारे निकल लिए। समय की पाबंदगी तो हम में कूट-कूट कर भरी थी! हमने माँ को वचन दिया की समय से घर लौट आएँगे। आख़िर हमारी इज़्ज़त का सवाल था - अब प्राण जाए पर वचन ना जाए!
 

सिर्फ़ दो चौराहे आगे ही तो जाना था- मई की गरमी की परवाह किए बैगर हम सब निकल गए। थोड़ा डर,घबराहट और उत्साह लेकर हमें पहुँचे सिनमा हॉल फ़िल्म देखने के लिए- टिकट खिड़की से टिकट लेकर और पॉप्कॉर्न के पैकेट के साथ आज हमने क़िला फ़तह कर लिया था...

Tuesday, September 26, 2017

रज़ाई

दिसम्बर का महीना और ख़ूब कड़ाके की ठंड पड़ रही थी।उस शाम ठंड कुछ ज़्यादा ही थी और तेज़ हवाएँ चल रही थी. कोहरा छाया हुआ था और हर कोई बस जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहता था. सड़क किनारे गरमागरम हलवा, मूँगफली, शकरकंदी, उबले अंडे,चाऊमीन और आलू की टिक्की बेचने वाले भी फटाफट अपनी दुकान बढ़ाने में लगे हुए थे। ऐसा जान पड़ता था मानो आज ही सारी सर्दियों की ठंड पड़ लेगी।अब क्या बताएँ जनाब,लोगों को अंधेरे से कम पर ज़्यादा ठंड से डर लग रहा था!

हमें भी उस दिन माँ ने गली में खेलने जाने नहीं दिया। स्कूल से आकर बस घर में ही क़ैद हो गये थे हम। सारे बच्चे घर में ही ख़ूब धमा चौकड़ी मचा रहे थे। हमने घर में बहुत उत्पात मचाया हुआ था।कितनी बार तो छोटी बुआ हमें डाँट कर गयी, "बिना मोजों के घूम रहे हो। तुम्हारी टोपी और मफ़्लर कहाँ है?" पर, भैया!हम तो ठहरे अपनी मर्ज़ी के मालिक-कैसे सुनते किसी की! ख़ुराफ़ात में तो हमने डॉक्टरेट करी हुई थी।


अब मैं आपको उसके बारे में भी बता दूँ- आज तो उसका हमारे साथ होना बहुत ही ज़रूरी था। माँ की विशेष हिदायत थी की जब हम सब बैठें तो उसे साथ ज़रूर लें!यह जानते हुए कि वो हमारे पास कुछ ही महीने की मेहमान है- पर ना जी ना,इतनी ठंड में भी हम अपनी मर्ज़ी चलाना चाहते थे। 

हमें लगा की हमें उसकी ज़रूरत नहीं है पर यह तो हमारी ग़लतफ़हमी थी. हमें उसका साथ बहुत अच्छा लगता था- वो सर्दियों की धूप में भी होती थी और रात को भी। उसके बिना हम बच्चों को अच्छी नींद ही नहीं आती थी.माँ आकर प्यार से हमें उसके साथ सुलाती तो बहुत अच्छा लगता था। फिर माँ के जाते ही हम शैतानी शुरू कर देते! सारी सर्दियाँ वो हमारे साथ ही गुज़ारती और अपनी गरमाहट से सबको ख़ुश रखती.माँ के हाथ और ढेर सारे प्यार से बनी हुई वो बड़े-बड़े फूलों वाली रज़ाई-आज भी उसकी गरमाहट भूली नहीं है!

Monday, September 25, 2017

बरसात की रात

उस रोज़ शाम से ही मौसम कुछ ख़राब था - आसमान में काले बादल थे पर बरसेंगे या नहीं कुछ कह नहीं सकते थे।

अम्माँ ने घर के आँगन में हमारे लिए कुर्सी-मेज़ लगवा दी और कहा," सब बैठ कर अपना-अपना होम्वर्क ख़त्म करो, खेल कूद बाद में !" हमारे अरमानों पर तो मानो किसी ने पानी की बालटी ही उलट दी हो। कहाँ तो हम यह सोचे बैठे थे की ठंडी-ठंडी हवा का मज़ा लेंगे, कहाँ ये पढ़ाई का फंदा हमारे गले पड़ गया। अब मरते क्या नहीं करते ! पैर पटकते हुए पढ़ने तो बैठ गए परंतु पढ़ाई से ज़्यादा हमारा दिमाग़ मौसम में लगा हुआ था।

गणित के सवाल दिमाग़ में घुस नहीं रहे थे, विज्ञान और हिंदी पढ़ने से ज़्यादा रुचि इस बात में थी कब हमें इस काम से मुक्ति मिलेगी।पर, हमारा ऐसा नसीब कहाँ! अम्माँ हमारे सिर पर बैठी हुई आलू छील रहीं थी।इस जंजाल से भागने की गुंजाइश बहुत कम दिख रही थी।हम आपस में गुपचुप बातें कर रहे थे- की आज बारिश होगी भी या नहीं और होगी तो क्या पूरी रात पानी बरसेगा?क्या कल सुबह तक बारिश होगी ? इन सवालों ने हम बहुत हैरान परेशान करा हुआ था।हम दिल ही दिल भगवान से यह माँग रहे थे, की हे प्रभु ख़ूब घमासान बारिश करना जो कल तक भी ना रुके और हमारी स्कूल की छुट्टी हो जाए।भई, हमने तो यही सुना था की बच्चे मन के सच्चे! और इसलिए हम सब पूरी शिद्दत से भगवान की चापलूसी में लगे हुए थे!


तभी अचानक से मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी - ऐसा लगता था की आज बादल हद से ज़्यादा मेहरबान हो गए हैं. मन ही मन लड्डू फूट रहे थे की भगवान ने हमारी अर्ज़ी पास कर दी और हमारी बात भी सुन ली! जय हो! सबने मंगलवार को हनुमानजी के मंदिर जाकर बूंदी के लड्डू चढ़ाने का प्रोग्राम भी बना लिया।


बादल जम के बरसे और सब तरफ़ ख़ूब पानी भर गया।घरवाले आपस में सोच विचार कर रहे थे की कल स्कूल की छुट्टी करा दी जाए. हम बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी सोने चले गयी।यह बात तो पक्की थी की हमें कल स्कूल जाने कोई दिलचसी नहीं थी ! पर हम नादान ये ना जानते थी की भगवान की मर्ज़ी कुछ और ही करने की है. अगले दिन जब हम सो कर उठे तो देखा सूरज की सुनहरी किरणें हमारे कमरे में घुस कर हमारा मज़ाक़ बना रहीं है और माँ की आवाज़ हमारे कानों का!

Sunday, September 24, 2017

अहमियत

ऐसा होता है की हमारी ज़िंदगी में कोई ना कोई बहुत ज़रूरी होता है - जिसके बिना रोज़ की ज़िंदगी भारी लगती है।बेहद अधूरी-सी रहती है और जिसके ना होने पर उसकी कमी बहुत महसूस होती है.हमें तभी पता चलता है की उसका हमारी ज़िंदगी की पिक्चर में कितना महत्वपूर्ण रोल है। अजी जनाब, अब यह क़िस्सा पढ़ कर आपको हमारे घर की सूपर स्टार के बारे में सब पता चल जाएगा।

अब कुछ ऐसा ही था - वो थी ही सबकी प्यारी। बन्नो बुआ से भी ज़्यादा सबकी लाड़ली थी ! उसका अन्दाज़ ही बिलकुल अलग था। जब पास रहती तो बस सब ख़ुश रहते थे- अम्माँ अपना कढ़ाई का काम आराम से कर पाती, बाबूजी अख़बार सुकून से पढ़ पाते, छोटी बहू अम्माँ का कोई भी काम करने से ना कतराती- बस बार-बार बड़े कमरे के चक्कर लगाती।

बच्चे भी घंटो बैठ कर साँप-सीढ़ी,लूडो,कैरम और ना जाने कौन-कौन से खेल खेलते,बड़े भैया पढ़ने के लिए कोई बहाना नहीं बनाते।पिताजी बड़े आराम से अपना सारा ऑफ़िस का काम निपटा कर ग्रामोफ़ोन पर किशोर कुमार के गीत सुनते।माँ को तो सबसे ज़्यादा सुकून मिलता- फ़ुर्सत से लेट कर सरिता की कहानियाँ पढ़ती । सब बर्फ़ वाला रूहफ़जा और घर की बनी क़ुल्फ़ी का ख़ूब मज़ा लेते! वो गरमियों के लम्बे दिन उसके होने से ज़्यादा मज़ेदार लगते.

पर जिस दिन वो ना आती तो बस,पूरे घर में कोहराम मच जाता। सब कुछ उलट-पलट जाता और ऐसा लगता मानो ज़िंदगी थम सी गई है। सब तरफ़ उसका ही नाम सुनाई पड़ता।इधर फ़ोन लगा, उधर पता करवा और कुछ नहीं समझ आता तो सीधा पहुँचना बिजली विभाग- यह जानने के लिए की आज सुबह से हमारे घर बिजली क्यों नहीं आ रही है? कब आएगी ? कहीं कोई तार तो ढीला नहीं? कितने घंटे लगेंगे? कब भेजोगे अपना आदमी ? और ना जाने कितने सवाल!


ऐसी थी बिजली की अहमियत हमारी ज़िंदगी में!

Saturday, September 23, 2017

मेहमान

कैसे भूल सकती हूँ वो दिन - सुबह से पूरे घर में हलचल मची हुई थी। इतनी भागम भाग की कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। मानो सब के सब ज़रूरत से ज़्यादा बिज़ी है.किसी के पास फ़ुर्सत ही नहीं की दो मिनट रुक कर बात तो कर ले!सब इतने ज़्यादा व्यस्त की हमारी बदमाशियों को भी नज़रन्दाज करा जा रहा था।हम सब इस सोच में डूबे थे कि आज हमारे घर में इतना कोहराम क्यूँ मचा हुआ है।इतने सारे सगे सम्बंधी क्या कर रहे हैं घर पर ।माँ से पूछने की कोशिश की तो माँ ने अपनी बड़ी -बड़ी आँखें दिखाकर धमका दिया! बच्चे हैं तो क्या हुआ, आख़िर सेल्फ़- रेस्पेक्ट भी कोई चीज़ होती है।अपना सा मुँह ले कर हम इधर-उधर हो लिए।


मौसाजी अपनी ऐम्बैसडर गाड़ी को चमकाने में लगे हुए थे और मौसियाँ अपनी सुंदर साड़ियों में सज कर एक-दूसरे से गप्पें मार रहीं थी। बस सब कुछ बहुत हैपनिंग सा लग रहा था।अब रसोईघर की तरफ़ देखा तो अम्माँ भी एक के बाद एक निर्देश दिए जा रहीं थी। स्वादिष्ट व्यंजनो की ख़ुशबू से पूरा घर महक रहा था। चुपके से झाँका तो गरमा गरम कचौरी, समोसे, दाल का हलवा, केले की सोंठ, दही-भल्ले और बहुत कुछ मेज़ पर तैयार रखा हुआ था।सब कुछ हमारी पसंद का, पर अफ़सोस हमारी पहुँच से कोसो दूर !

काम वाली बाई का तो शायद आज स्पेशल डाँट दिवस था। झाड़ू-पोंछा ठीक से ना लगाने की वजह से अम्माँ से ख़ूब करारी डाँट खाने को मिली उसको।फिर आया हमारा नम्बर।सुंदर- सुंदर कपड़े और तेल से चमकते बालों में हम भी किसी स्टार से कम नहीं लग रहे थे।

इतने में पिताजी ने आवाज़ लगाई," क्या सब तैयार हैं ?" एक आवाज़ पड़ते ही पूरा का पूरा ख़ानदान गाड़ियों में भर कर पालम हवाई अड्डे की और रवाना हो गया. अब रोज़ -रोज़ थोड़ा ही विदेश से मेहमान आते हैं और ऐसे मौक़े मिलते हैं सजने के और बढ़िया खाना खाने के.

पाँच साल बाद मामा आए थे-सबके लिए ख़ूब सारे तोहफ़े और प्यार लेकर ...


और मेरे लिए नीली आँखों और सुनहरे बालों वाली गोल -गोल घूमने वाली प्यारी सी गुड़िया...

पक्की वाली दोस्ती

हम एकदम पक्के दोस्त थे और हमेशा साथ-साथ ही रहते थे। गली- मोहल्ले वाले हमें जय और वीरू बुलाते थे। जब तक मैं स्कूल नहीं जाती थी, वो मेरे पास ही होती और स्कूल से वापिस आकर मैं उसके पास होती थी।मैं उसका बहुत ध्यान रखती थी। कुछ स्पेशल याराना था हमारे बीच में! कुछ बचपन की चीज़ें ऐसी होती हैं जिनके साथ हमारा एक अटूट रिश्ता बन जाता है।

अब हम दोनों कब तक एक दूसरे का साथ निभाते, कभी ना कभी तो हमारा साथ छूटना ही था। किसी ना किसी को तो अलग होने का दुःख मनाना ही था. चार साल की उम्र में जान पहचान हुई थी. वो पिताजी के साथ आयी थी।बस एक कोने में चुपचाप खड़ी थी।मैं जब उससे पहली बार मिली तो बहुत घबरा गयी थी,पर धीरे -धीरे हमारी दोस्ती हो गयी. मुझे आज भी याद है माँ -पिताजी के कितना समझाने के बाद मैंने उससे दोस्ती करी थी।फिर कोई ऐसी - वैसी दोस्ती नहीं, पक्की वाली दोस्ती !

हमारा रोज़ दिन का साथ रहता- गली में घूमने जाना,दोस्तों से मिलना-मिलाना,तफ़री करने जाना,माँ के छोटे- मोटे काम करना, गली में घूमना, दुकान से सब्ज़ी लाना और ना जाने सबके कितने काम करना।कभी-कभी तो हम बिना काम के भी निकल जाते थे। उसने भी मेरा साथ और दोस्ती बख़ूबी निभायी और हमेशा ही मुझे आगे बढ़ना सिखाया.


जैसे उसने अपनी दोस्ती निभायी शायद ही कोई निभा सकता है।


अब शायद किसी कबाड़ी की दुकान में पड़ी होगी मेरी प्यारी लाल तिपाहिया साइकल, जिस पर बैठ कर मैंने अपने आसपास की पूरी दुनिया घूम डाली थी.

छत्तीस का आँकड़ा

मैं आपको एक बहुत ही मज़ेदार, नहीं एक दर्दनाक क़िस्सा सुनता हूँ। 

वैसे तो मैं ख़ुद को बहुत बड़ा धुरंधर समझता हूँ- एक नम्बर का सूरमा.कभी -कभी तो मुझे बाहुबली के जैसे भी फ़ील होता है! छुट्टी का दिन और घर में सब काम छुट्टी वाली स्पीड से हो रहे थे।पिताजी अख़बार का आनंद ले रहे थे, माँ और दादी अपने अचार- मुरब्बे सम्भाल रहीं थी और मैं चारपाई पर लेटा हुआ आसमान को निहार रहा था.


तभी बबलू आया और बोला, " अबे जल्दी नहा ले, पतंग उड़ाने जाना है!" बस उसका यह कहना था की मानो मेरे शरीर में बिजली की एक लहर दौड़ गई हो।मैं झटपट भागा गुसलखाने की तरफ़ भागा।


गुनगुनाते हुए बालटी में पानी भरना ही शुरू करा था की, अचानक दीवार के एक कोने में वो दिखाई दी ! उसने मुझे देखा, मैंने उसे देखा- आँखें चार हुई, दिल की धड़कने बढ़ने लगी। आवाज़ तो मानो गले में ही क़ैद हो कर रह गयी।मैं थोड़ा सा शर्मसार, थोड़ा घबराया हुआ. समझ नहीं पा रहा था की क्या करूँ- मैं पीछे हुआ, तो वो आगे.मैंने अपना पेंतरा बदला। उसकी नज़र बचा के दरवाज़े की ओर सरका तो वो मेरी भी गुरु निकली- छलाँग मार कर सीधी पहुँची गयी दरवाज़े की चटकनी के पास ! 


काश, मैंने भी लोंग जम्प ठीक से सीखा होता तो इसे बताता।मेरी जान जैसे अटक ही गयी, लगा अब साँसे धोखा दे जाएँगी और भयानक से ख़याल आने लगे. सोचा हाथ लम्बे कर कुछ दे मारूँ इसके सिर पर! पर हाय री मेरी फूटी तक़दीर वो तो मुझसे भी ज़्यादा चौकस निकली।मेरी हर मूव्मेंट को नोटिस करती रही. ऐसा लगा कि मैं दुश्मन जहाज़ की तरह उसके रडार पर हूँ! मैंने हिम्मत करके जैसे ही अपना पैर आगे बढ़ाया तो वो पड़ा जा कर साबुन पर!मैं चारों खाने चित्त और वो सीधा मेरे ऊपर।


अपनी लम्बी-लम्बी आँठ टाँगो से उसने एक दम मस्त लैंडिंग करी! उस दिन उसका तो पता नहीं,पर मैं अपनी दो टाँगो पर ऐसे भागा की चड्डी पहनना भी भूल गया और बब्लू ने क्लास में ख़ूब मज़े ले- ले कर मेरी कहानी सबको सुनाई ।


तबसे लेकर आज तक मकड़ियों और मेरे बीच में छत्तीस का आँकड़ा है !




तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...