Thursday, September 28, 2017

फ़िल्मी चक्कर

हम जानते थे कि हमें बहुत डाँट पड़ेगी, फिर भी हम सब ने सोच लिया था की चाहे कुछ भी हो जाये हम किसी को कुछ भी नहीं बताएँगे।एक दूसरे को भगवान की क़सम तक दे डाली, ज़रा सोचिये ऐसी क्या बात रही होगी! आपस में पक्की साँठ- गाँठ कर ली थी।ऐसे कैसे हो सकता की कोई हमारे इस राज को हमसे उगलवा पाए।

चलिए कुछ देर में इसका भी ख़ुलासा करती हूँ। अब आगे पढ़िए...सब मिलकर सोचने लगे की इस काम को कैसे पूरा करेंगे.किसी ने बोला दोपहर का वक़्त सबसे बढ़िया जब घर वाले आराम करते हैं,कोई बोला अगर ज़्यादा देर हो गयी तो मार पड़ेगी। इतने कहीं से आवाज़ आयी हमें एक राज़दार चाहिए। सोच-विचार करने के बाद एक ही नाम सामने आया- माँ! अब माँ तो माँ होती है ना! ग़लत हो या सही माँ तो हमेशा ही हर कष्ट से बचाती है! फिर क्या,हमने माँ को अपना राज़दार बनाया और सब जाने के लिए तैयार हो गए।

सब सजधज कर कितने प्यारे बच्चे लग रहे थे! बस जल्दी से जल्दी घर से निकलना चाहते थे, कहीं ऐसा ना हो बन्नो बुआ हमें पकड़ ले और फिर दरोग़ा जैसे हमसे पूछताछ करने लगे । फिर क्या था हम सारे निकल लिए। समय की पाबंदगी तो हम में कूट-कूट कर भरी थी! हमने माँ को वचन दिया की समय से घर लौट आएँगे। आख़िर हमारी इज़्ज़त का सवाल था - अब प्राण जाए पर वचन ना जाए!
 

सिर्फ़ दो चौराहे आगे ही तो जाना था- मई की गरमी की परवाह किए बैगर हम सब निकल गए। थोड़ा डर,घबराहट और उत्साह लेकर हमें पहुँचे सिनमा हॉल फ़िल्म देखने के लिए- टिकट खिड़की से टिकट लेकर और पॉप्कॉर्न के पैकेट के साथ आज हमने क़िला फ़तह कर लिया था...

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