Saturday, September 23, 2017

पक्की वाली दोस्ती

हम एकदम पक्के दोस्त थे और हमेशा साथ-साथ ही रहते थे। गली- मोहल्ले वाले हमें जय और वीरू बुलाते थे। जब तक मैं स्कूल नहीं जाती थी, वो मेरे पास ही होती और स्कूल से वापिस आकर मैं उसके पास होती थी।मैं उसका बहुत ध्यान रखती थी। कुछ स्पेशल याराना था हमारे बीच में! कुछ बचपन की चीज़ें ऐसी होती हैं जिनके साथ हमारा एक अटूट रिश्ता बन जाता है।

अब हम दोनों कब तक एक दूसरे का साथ निभाते, कभी ना कभी तो हमारा साथ छूटना ही था। किसी ना किसी को तो अलग होने का दुःख मनाना ही था. चार साल की उम्र में जान पहचान हुई थी. वो पिताजी के साथ आयी थी।बस एक कोने में चुपचाप खड़ी थी।मैं जब उससे पहली बार मिली तो बहुत घबरा गयी थी,पर धीरे -धीरे हमारी दोस्ती हो गयी. मुझे आज भी याद है माँ -पिताजी के कितना समझाने के बाद मैंने उससे दोस्ती करी थी।फिर कोई ऐसी - वैसी दोस्ती नहीं, पक्की वाली दोस्ती !

हमारा रोज़ दिन का साथ रहता- गली में घूमने जाना,दोस्तों से मिलना-मिलाना,तफ़री करने जाना,माँ के छोटे- मोटे काम करना, गली में घूमना, दुकान से सब्ज़ी लाना और ना जाने सबके कितने काम करना।कभी-कभी तो हम बिना काम के भी निकल जाते थे। उसने भी मेरा साथ और दोस्ती बख़ूबी निभायी और हमेशा ही मुझे आगे बढ़ना सिखाया.


जैसे उसने अपनी दोस्ती निभायी शायद ही कोई निभा सकता है।


अब शायद किसी कबाड़ी की दुकान में पड़ी होगी मेरी प्यारी लाल तिपाहिया साइकल, जिस पर बैठ कर मैंने अपने आसपास की पूरी दुनिया घूम डाली थी.

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