Monday, June 14, 2021

बचपन की मिठास

हमारे घर के पास के बहुत बड़ा पीपल का पेड़ था और बग़ल में सुरेश हलवाई की दुकान थी- एक तरफ़ विशालकाय कड़ाई में दूध उबलता रहता और दूसरी तरफ़ वो दुकान के साथ में रखे बेंचों पर बैठे ग्राहकों के लिए चाय बनाता रहता. उसकी दुकान बहुत बड़ी नहीं थी, एक लम्बी दुकान जिसकी पीछे की तरफ़ काँच की अलमारियों में खाने के बड़े-बड़े थाल रखे रहते थे.एक में नमकीन और दूसरे में मिठाई रखी होती- मूँग की दाल, दालमोठ, नमकपारे और काली मिर्च वाली मठरियाँ तो दूसरी अलमारी में बेसन और मोटी बूंदी के लड्डू, खोया बर्फ़ी, बेसन की बर्फ़ी, छेनामुरकी और गुड़पारे. सामान तो लिमिटेड था पर टेस्ट में बेहद ग़ज़ब था ! 

दुकान के इंटिरीअर्ज़ बहुत ही बेसिक थे- पीछे की दीवार पर बड़े -बड़े लकड़ी के फट्टे लगा कर सामान रखने का प्रबंध किया हुआ, वही साथ में चार बड़े आले थे जिन में दुकान की रोज़मर्रा की चीजें रखी हुई थी. ये तो दुकान का आगे का हिस्सा था अब चलिए पीछे की तरफ़- एक छोटा सा दालान जिसने में मैदा और चीनी की बोरियाँ, बड़ी-बड़ी कड़ाइयाँ, दूध के बर्तन और बड़ी- बड़ी परात जिसमें मठरी और नमकपारों के लिए मैदा गूँधी जाती थी . फिर आगे की तरफ़ एक  छोटा सा आँगन था जिसमें अक्सर बारिश का पानी भर जाता और बड़े भागौने कश्तियों जैसे फ़्लोट किया करते थे.


सुरेश की दुकान पर हमेशा भीड़ रहती थी, लोग चाय की चुस्कियों और मिठाई की मिठास में अपनी रोज़मर्रा की परेशानियों को भूल जाते थे, तो कभी बेस्वाद जीवन को कचौरियाँ खा कर चटपटा बना लेते थे. मंगलवार के दिन पवनपुत्र हनुमान के पास अपनी प्रार्थना शीघ्र पहुँचाने के लिए मीठी बूंदी का संग ढूँढ लेते, इम्तिहान में पास हए बच्चों की ख़ुशियाँ खोये की बर्फ़ी के साथ बाँट लेते, नये मेहमान के आगमन के बारे में बूंदी के लड्डू बाँट कर कर बता देते , कहीं जागरण और पूजा-पाठ होता तो लड्डू-कचौरी का छोटा डिब्बा सबकी डाइनिंग टेबल पर पहुँच जाता
, कभी किसी की सगाई की बर्फ़ी और कभी बस ऐसे ही जब कुछ मीठा खाने का मन होता! जीवन की हर छोटी-बड़ी ख़ुशियाँ सुरेश की दुकान के नमकीन और मीठे के साथ जुड़ी हुई थी- जब मन होता हर कोई अपनी ख़ुशियों को बाँट लेता और अपनी ख़ुशियों के दायरे को और बड़ा बना लेता.

अब हमारा चक्कर तो ऑल्मोस्ट हर दिन ही लग जाता था. “ जा भाग कर सौ ग्राम मूँग की दाल और खोये की बर्फ़ी ले आ, नई सड़क वाली नानीजी आने वालीं हैं” या “ तेरी मौसी आ रही है, जल्दी जा कर दालबीजी, नमकपारे और बेसन के लड्डू ले आ.” कुछ मिठाई का लालच कुछ मेहमान की आने की ख़ुशी हमें सुरेश की दुकान तक पहुँचा देती थी. ताज़ा बनी मिठाई को भला कौन मना करता है!


लेकिन देखिए समय कैसे बदल जाता है- पहले मिठाई जी भर कर खाते थे और पूरा-पूरा दिन खेलते और मस्ती करते थे. आज मिठाइयों की कमी नहीं पर अब सेहत का ध्यान रखना पड़ता है, आधा टुकड़ा बर्फ़ी खा लो तो मन में यही विचार कौंधता है, “ आज मीठा बहुत ज़्यादा हो गया, कल तीन किलोमीटर एक्स्ट्रा दौड़ना पड़ेगा.”


आज सब कुछ होते हुए भी बचपन की बेफ़िक्री नहीं है, रिश्तों में प्यार की मिठास नहीं है और आपस में तालमेल की चाशनी नहीं है, सिर्फ़ बेस्वाद, नीरस रोज़ की ज़िंदगी और बेहिसाब तनाव है !

1 comment:

  1. Lovely story. Can really relate to a shop near my home too.

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