Tuesday, October 17, 2017

फ़िल्मी चक्कर

अब ये कहानी कितनी फ़िल्मी है ये तो आप ही निश्चित करेंगे- मेरा काम है आपको बचपन की गलियों में एक बार फिर से ले जाना और प्यार में डूबी हुई यादों और क़िस्सों से मिलवाना।

उस दिन हुआ यूँ की घर आते-आते सोनू मिल गया।वो मेरी क्लास में नहीं पढ़ता था और मुझे से दो साल सीन्यर था। वो बिना बात का रौब बहुत झाड़ता था,पर बदमाशियों में मेरा गुरु भी था तो उसकी कुछ बातें मैं देखी -अनदेखी कर दिया करता था।हम सब सोनू को अपना हीरो मानते थे - अब उसके जैसा स्टाइलिश लड़का तो पूरे मोहल्ले में नहीं था। शाम को जब वो अपनी इस्त्री की हुई लाल टीशर्ट, नीली जींस और स्पोर्ट्स शूज़ में निकलता तो उसका रौब अलग ही पड़ता था।कभी - कभी जब वो चोरी से अपने पिताजी का बरूट नाम का पर्फ़्यूम लगा कर आता तो सारी लड़कियाँ उससे बात करने के मौक़े तलाशने लगती।

फिर एक तरफ़ हम जैसे थे जो बाबा आदम के ज़माने की पुरानी निक्कर और पुरानी क़मीज़ में ही घूमते थे। स्पोर्ट्स शूज़ तो दूर की बात हम तो भी हवाई चप्पल भी नहीं पहनते थे।सारा दिन नंगे पैर घूमना और घर आ कर दादी की डाँट खाना हमारा रोज़ का काम था। ऊपर से सरसों के तेल से महकते बाल, कोई लड़की हमारे पास फटकाना भी चाहती तो यह तेल की बदबू उससे हमसे कोसों दूर ले जाती।"सुनो तुम अपनी मम्मी से बोलो केओ कार्पिन का नया तेल आया है, तुम्हारे ले कर आए, उससे ना बालों में से बहुत अच्छी ख़ुशबू आती है ।" अब ग़लती से माँ के सामने ये ज़िक्र कर देते तो इतनी गालियाँ पड़ती की पूछिए मत।"कमबख़्त! सारा दिन लड़कियों के साथ घूमता रहता है। ये साज- शृंगार की बातें कौन बताता है तुझे? तुझे क्या ब्याह करने जाना है ?" मन तो होता की बोल दूँ की माँ अगर तू मेरे बालों में यह सरसों का तेल लगाती रही तो मुझे यक़ीन है की मैं कुँवारा ही मर जाऊँगा। इसकी भयानक बदबू तो किसी लड़की को कभी मेरे पास भी नहीं देती है।

पर पानी में रह कर मगर से बैर, अभी इतनी हिम्मत नहीं थी!

पता नहीं उस दिन माँ ने मुझे सोनू के साथ जाने की इजाज़त कैसे दे दी।अब फ़िल्म जाने के लिए पिताजी से तो पर्मिशन नहीं मिलती तो किसी तरह से माँ को पटा लिया। फ़िल्म देखने के लिए कितना फ़िल्मी ड्रामा करना पड़ा क्या बताऊँ! इमोशंज़ का भरपूर इस्तेमाल किया तब जा कर माँ मानी।यह क़िला फ़तह करने के बाद मैं झटपट तैयार होने चला गया।जैसे ही घंटी बजी मैं भाग कर पहुँचा तो देखा मुझ से पहले पिताजी ने ही दरवाज़ा खोल दिया है और सोनू से ज़्यादा मुझे तैयार देख कर हैरान हो गए।" सज-धज कर कहाँ जा रहा इस समय ?" मेरी तो जैसे बोलती ही बंद हो गयी। इतने में माँ भी वहाँ आ गयीं, पिताजी ने माँ को देखा और मैंने माँ को- मेरा ओवर कॉन्फ़िडेन्स तो देखिये मुझे लगा माँ सम्भाल लेंगी।"मुझे क्या देख रहा है, पता नहीं सोनू और ये क्या-क्या करते रहते हैं दिनभर। अब बता अपने पिताजी को की इसके साथ तू फ़िल्म देखने जा रहा है !"

माँ के डायलॉग ने तो मेरी ज़िंदगी की इस शाम का क्लाइमैक्स ही बदल डाला।उसके बाद पिताजी ने ऐसी धुलाई करी की मैंने फ़िल्म क्या फ़िल्मी सपने देखना भी छोड़ दिया!

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