Friday, October 6, 2017

मेरी विजय

माँ को सताना तो मेरा परम धर्म था।आए दिन कुछ ना कुछ करना और फिर डाँट खाना रोज़ का ही प्रोग्राम बन गया था। मैंने अपनी माँ को पिछले एक हफ़्ते से परेशान कर रखा था और उसकी झल्लाहट सातवें आसमान पर पहुँच चुकी थी. "क्या चाहिये तुझे,?" माँ ग़ुस्से से भड़की।मैंने भी थोड़ी सी हिम्मत बाँध कर कहा,
"क्या मुझे पाँच रुपये दे सकती हो,कुछ ख़रीदना है।"

मेरा तो यह कहना था और फिर जो डाँट की सूनामी शुरू हुई की उससे बच कर निकलना मुश्किल ही नहीं नमुमकिल भी हो गया! हज़ारों लानतें बरसाने के बाद माँ के दिल के कोने में सोई हुई ममता ने शायद उसे जगाया और माँ ने पुचकारते हुए पाँच का करारा नोट मेरे हाथ पर रख दिया।अब यह मत सोचिये की जंग इधर ही ख़त्म हो गयी, अभी तो और दाव-पेंच बाक़ी थे।

मुझे तो अभी दूसरी सीमा पर भी विजय पानी थी! ख़ुद को धकेलते हुए पिताजी के पास पहुँचा और अपनी कहानी शुरू करी दी।कहते हुए दिल ज़ोरों से धड़क रहा था और गला सूख रहा था। समझ नहीं आ रहा था की कैसे कहूँ ।हिम्मत करके कुछ शब्द निकले।"पिताजी, मुझे पाँच रुपये चाहिए स्कूल का कुछ ज़रूरी समान लेना है।" मैं हर तरह की गोलीबारी के लिए तैयार था! 

काम में अत्यंत व्यस्त पिताजी अपने चश्मे के नीचे से झाँकते हुए बोले," जा अलमारी से मेरा बटुआ ले कर आ,अभी देता हूँ।पाँच से काम हो जाएगा या दस चाहिए?" मैंने बहुत ही शराफ़त दिखाते हुए कहा, "नहीं,पाँच ही बहुत है।" अब लालच बुरी बला है,अगर लालच करता तो पता चलता की दस के चक्कर में मेरे पाँच भी चले गए!

सीमा पर बिना युद्द ही दुश्मन ने सफ़ेद झंडी दिखा दी।आज मैं ख़ुद से बहुत ही ख़ुश था।अब दो बड़े-बड़े सूरमाओं से काम निकलवाना कोई मेरा जैसा बदमाश ही कर सकता था!

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