Tuesday, October 3, 2017

मेरी ज़िद

अब हुआ कुछ ऐसा की मैंने बस ज़िद ही पकड़ ली की मुझे तो बस बबलू जैसी ही सेम -टू-सेम ही चाहिये।सारे स्कूल पर रोब झाड़ रखा था उसने। जिस दिन से उसके साथ आना शुरू किया उसकी हीरोपंती कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी थी। फिर, क्या ज़बरदस्त फ़ैन फ़ॉलोइंग- सब बच्चे उसके आगे- पीछे! वैसे मेरी भी मार्केट वैल्यू अच्छी थी पर वो साथ होती तो शायद और बढ़ जाती! अब मैं भी कोई कम नहीं- पर उसके बिना कम भी और ग़म भी।

हमारे घरवाले हैरान-परेशान! उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था की आज स्कूल में ऐसा क्या हो गया की मैंने उनकी नाक में दम कर रखा है।दादी ने प्यार से पूछा तो मैंने बात सुनी-अनसनी कर दी, माँ के तो मैं क़ाबू में ही नहीं आया, चाची कितनी बार आयीं मेरे पास- पर नहीं मुझे तो बस पिताजी से ही बात करनी थी. मैंने सोचा, अब बड़े अफ़सर से बात करके ही तो काम होगा, यह छोटे- मोटे मुलाजिम मेरा इतना ज़रूरी काम नहीं कर पाएँगे!

घड़ी की सुइयाँ देखते -देखते तो मैंने दोपहर काटी।जैसे ही पिताजी के आने का पता चला, मैं बिना वक़्त बर्बाद किए सीधा उनके पास गया -कुछ घबराया और डरा सा।पिताजी स्कूल के क़िस्से के बारे में कुछ नहीं जानते थे। माँ ने भी उन्हें मेरे आज के प्रपंच के बारे कुछ नहीं बताया था, यानी मैदान एकदम साफ़! मैंने बोलना शुरू किया और उन्होंने मेरी सारी बात तसल्ली से सुनी।अब नौटंकी में तो हमारा कोई सानी नहीं है इतनी भोली सूरत बनाई की पापा तो वहीं पिघल गए!

फिर प्यार से बोले, "क्या चाहिये?" बस क्या था हमने अपने दिल की बात कह दी.पिताजी भी बात के पक्के निकले- अगले ही दिन वो घर पर आ गयी.

चमकती हुई, काले रंग की, टोकरी और घंटी वाली मेरी अपनी साईिकल- जिसने मुझे उड़ने के लिए पंख दिए और आगे बढ़ने के लिए सही रास्ता दिखलाया।

No comments:

Post a Comment

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...