Sunday, October 9, 2022

गोलगप्पे का पानी

हमारी तो रही सही इज़्ज़त भी मिट्टी में मिल गयी जिस दिन यह काण्ड हुआ- हम तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि हमारा पासा उल्टा पड़ जाएगा. लगातार बारिश की वजह से हम लोग बहुत फ़्रस्ट्रेटेड हो गए थे - पहले दो दिन तो बारिश खूब अच्छी लगी फिर टू मच हो गया. बाहर खेलने जा नहीं सकते थे और घर में दादी, बुआ और पिताजी की डाँट की बेमौसमी बारिश से बच नहीं पा रहे थे. एक माँ ही हमारी साइड थी क्योंकि वो हर बात प्यार-दुलार से समझाती, ना कि डाँट- डाँट कर.


जानना चाहतें हैं उस दिन क्या हुआ- चलिए बताता हूँ. हुआ यूँ कि मदन चाचा और विम्मी चाची शाम को हमारे घर आने वाले थे. सुबह से दादी और माँ बहुत बिज़ी थे- “ शगुन, दही जमा देना- शाम तक अच्छी जम जाएगी. आलू भी उबाल कर रख देना, मैंने दाल भून दी है कचौरियों के लिए - ज़रा देख लेना, मसाला कम हो तो डाल देना.”  दादी की हिदायतें हैं या फिर द्रौपदी का साड़ी खतम ही नहीं होती है ! घर में ये सब और ऊपर से बारिश से नाक में दम - समझ नहीं आ रहा था क्या करे. बरामदे में बैठते तो बन्नो बुआ शुरू हो जाती, “ तुम निकम्मों के पास आज कुछ करने को नहीं है तो जाकर लूडो खेल लो- यहाँ बैठोगे तो कोई ना कोई बदमाशी ही करोगे.” बैठने का मतलब बदमाशी नहीं होता बुआ, ये बात हमारी ज़ुबान पर आते-आते रह जाती. बुआ से पंगे लेने का कोई मूड नहीं था - हम ने एक दूसरे को आँखों ही आँखों में इशारा किया और कमरे में चले गए. वहाँ बैठ कर सोचने लगे की इस नॉन-स्टॉप बारिश वाले दिन को कैसे मज़ेदार बनाए. “ चलो अख़बार फाड़ कर किश्तियाँ बनाते हैं- आँगन में जो तालाब बन गया उस में उन्हें लॉंच करेंगे,” चिंटू बोला. “ अबे गधे, काग़ज़ की किश्ती है कोई रॉकट नहीं जो उसे लॉंच करेंगे,” खिड़की में बैठा बबलू चिलाया. अर्रे! यहाँ तो बारिश के साथ- साथ पटाखे भी फूटने लगे, कुछ तो करना ही पड़ेगा. क्या करे, क्या करे!
जैसे तैसे सबको इकट्ठा कर के बरामदे में पहुँचे तो झरना मौसी की आवाज़ सुनाई दी,” अम्मा बड़ी मुश्किल से आयी हूँ- सड़कों पर घुटनों तक पानी भरा था. कोई बस नहीं मिली, पैदल चल कर पहुँची हूँ तुम्हारे पास.” दादी सिर हिलाते-हिलाते उनकी बात सुन रही थी. एक और मेहमान, वो भी बिन बुलाया! नॉट गुड. हैं! इतनी बरसात में भी अपने घर में चैन नहीं झरना मौसी जो यहाँ हम सब को बेचैन करने चली आयीं! ( ये मेरी अंदर की आवाज़ बोली!)

चलिए, मैं आपको अपने मेहमानों के बारे में कुछ बताता हूँ. सबसे पहले, मदन चाचा- वो पापा के ताऊजी के सबसे छोटे बेटे हैं और एक नम्बर के फेंकू भी हैं. हर बात को बढ़ा- चढ़ा के बताना, लम्बी- लम्बी हाँकना और खुद को सबसे ज़्यादा अक़्लमंद साबित करना उनका नैशनल पास्टटाइम है. फिर आती है विम्मी चाची यानी की उनकी धरमपत्नी- अगर पति सेर है तो पत्नी सवा सेर! उनको और उनके ख़ानदान को दुनिया के सब लोग जानते हैं चाहे नेता हो या अभिनेता, हर हफ़्ते उनको इन्वाइट्स आते हैं, वो सिर्फ़ विदेशी चीजें ही इस्तेमाल करती और ना जाने क्या- क्या. भगवान जाने चाची के पास इतनी गप सुनाने की ताक़त कहाँ से आती है! हम में इतना झेलने की शक्ति नहीं थी. एक ये लोग, दूसरी झरना मौसी- माँ की ममेरी बहन है पर है एकदम बातूनी! बातें करने में उन्होंने डॉक्टरेट की हुई है- कोई भी, जी हाँ कोई भी टॉपिक हो, कैसा भी टॉपिक हो उनकी बातें रुकती नहीं हैं. उनकी बातों की ट्रेन चलती रहती है नान स्टाप! इक्स्प्रेस ट्रेन जो किसी स्टेशन पर रुकना नहीं जानती. 
बन्नो बुआ की ये फ़ेवरेट है- दोनों एक जैसे हैं और दादी की भाषा में बोलूँ तो , “ काम की ना काज की ढाई सेर अनाज की!” जब भी आपस में मिलती हैं तो बस बातें ही करती रहती हैं,” हाय, जीजी ग़ज़ब का सूट लग रहा है, मुझ भी अपने दर्ज़ी के पास ले चलना मैं भी एक- दो सिलवा लूँगी. एक दम टॉप क्लास फ़िटिंग दी है उसने.” झरना मौसी की तो आत्मा प्रसन्न हो उठती,” अरी, चल फिर कल ही चलते हैं- पहले श्याम लाल की दुकान से कपड़ा लेंगे, दर्ज़ी को दे कर सीधे मैचिंग सेंटर से दुपट्टा उठाएँगे. फिर, अगर तुझे कोई और काम नहीं है तो बिन्नी के घर चलते हैं.” सुना है उसके पास कुछ इम्पोर्टेड स्वेटर आये हैं देख कर आते हैं.”  हम इन दोनों की बातें सुन-सुन कर पक जाते तो ताजी हवा खाने बरामदे में आ जाते.
लेकिन आज बारिश ने हमारे साथ पेंगे ले रखे थे- रुकने का नाम ही नहीं ले  रही थी. हम अंदर खड़े हो कर मूसलाधार बारिश में इधर- उधर होती हो चीजों को देख कर बोर हो रहे थे. ऊँची क्यारियों में पानी ओवर्फ़्लो हो कर ऐसे गिर रहा था मानो नीयग्रा फ़ॉल हो! आज पेड़, पौधे तो ज़रूरत से ज़्यादा ही नहा लिए थे.  अब इसके बाद तो सिर्फ़ उन्हें ड्राई क्लीनिंग ही चाहिये होगी. ख़ाली गमले, जंग लगे कनस्तर, डालडा के ख़ाली डिब्बे और बाल्टी को पानी की अन्लिमटेड सप्लाई मिल रही थी तो दूसरी तरफ़ हमारे घर का आँगन एक मिनी पूल जैसा प्रतीत हो रहा था. फ़र्क़ इतना था की पूल में इंसान स्विमिंग करते हैं यहाँ पर बाल्टी, गमले और कनस्तर आपस में टकराते हुए स्विमिंग का आनंद ले रहे थे! 
“ चल बे अंदर चल के कैरम खेलते हैं, कब तक बारिश को निहारते रहेंगे!” ये कह कर बिट्टू अंदर चल गया. हम सब उसकी पूँछ, जहां वो वहाँ हम! कमरे में पहुँचे तो नज़ारा ही अलग था - बातें ही बातें. माँ और विम्मी चाची एक दूसरे के साथ रेसिपी शेयर कर रही थी, तो दूसरी तरफ़ पिताजी और मदन चाचा चाय पीते हुए पोलिटिकल डिस्कशन कर रहे थे, बन्नो बुआ और झरना मौसी तो हमें नज़र नहीं आए पर दादी सोफ़े पर ऊँघती ज़रूर दिखायी दी. 
तभी बन्नो बुआ ने माँ को आवाज़ दी, “ भाभी खाना कितनी देर में तैयार 
होगा ? झरना और मुझे बहुत भूख लग रही है.”
हैं! कुछ काम करे बिना भूख लग रही है- नोट फयेर. जी में आया की कह दूँ बुआ कभी तो कुछ काम कर लिया करो. थोड़ा माँ को भी ब्रेक मिलेगा. पर, ये बातें ज़ुबान पर आने से पहले ही यू-टर्न मार गयी. 
“ बस अभी थोड़ी देर में शुरू करती हूँ दीदी”, माँ ने बुआ को बोला. सब ही बिज़ी थे और हम सब टोटल वेले! अब खुद को कैसे एंटर्टेन करे कुछ समझ नहीं आ रहा था - तभी मोंटू आया और चटखारे लेता हुआ बोला, “ कचौरी तो ग़ज़ब बनी है!” 
हम सब दंग रह गए . माँ को पता चलेगा तो बहुत डाँट पड़ेगी. मेहमानों ने तो खाया भी नहीं और हमने चखना भी शुरू कर दिया! पर क्या करे पापी पेट का भी तो सवाल है - उसके भुखमरी के कठिन सवालों को इग्नोर करें तो भी कैसे करें …
हम सारे धीरे से सरक लिए रसोई की तरफ़ जहां से हमें कचौरी, गोल -गप्पे, मिठाई और बहुत कुछ टेस्टी चीजें अपनी बाहें नहीं, नहीं ख़ुशबू फैलाए बुला रही थी. माँ और दादी ना आ जाए मैंने झट देनी मुँह में एक मटर कचौरी भरी तो मोंटू ने हाथ मारा बेसन के सेव पर, बिट्टू जी ने तो दो- चार मठरियाँ ही ठूँस ली और गप्पू सीधा पहुँचा गोलगप्पों के थाल के पास और लपक कर चार - पाँच में आलू भर खा डाले. 
अचानक से हमें एक बदमाशी सूझी! हमने गोलगप्पे के पानी में हरी मिर्च की चटनी डाल दी और उसे सूपर तीखा बना दिया. इतना तीखा की कानों से धुआँ निकालने की गैरंटी हमारी थी. ना, ना सारे पानी में नहीं पर जो अलग से रखा हुआ था. इससे पहले की कुछ समझ पाते दादी रसोई में आयीं और बोली, “ मेहमानों ने खाया भी नहीं और तुम लोग पहले ही खाने आ गए. चलो, जल्दी से मदद करो और डाइनिंग टेबल पर सब समान रख कर आओ.” 
हम भी जल्दी- जल्दी समान लेकर चल पड़े और इस झपका- झपकी में सब कुछ अस्त - व्यस्त हो गया! अब गोलगप्पे के पानी के दो बर्तन, वो भी सेम टू सेम. टोटल कन्फ़्यूज़न!! समझ में ही नहीं आया की सूपर तीखा पानी कौन से वाले में है. क्या करे, बुद्धि देवी ने अपने द्वार बंद कर लिए थे और हम नन्हे - मुन्ने, मासूम उनके आशीर्वाद से वंचित ही रह गए. 
हम पलटे ही थे - तभी पिताजी की आवाज़ आयी, “चल, मोनू गोलगप्पे खाते हैं तब तक शगुन गर्म टिक्की ले आएगी.” दोनों चल पड़े टेबल के उस कोने पर जहां से गोलगप्पे उन्हें अपनी तरफ़ आकर्षित कर रहे थे. वो आगे बढ़े और यहाँ हमारे दिल की धड़कने तेज हुई, इतनी तेज की शायद दिल कूद कर हाथ में आ जाये.
एक तरफ़ से ये दोनों और दूसरी तरफ़ से बुआ और झरना मौसी- संकट, घोर संकट! “ ये लो जीजी तुम्हारे लिए.” बुआ ने गोलगप्पे के पानी की कटोरी मौसी को थमा दो. “ भैया, ये आप दोनों के लिए.”
तभी पिताजी बोले, “ याद हैं मोनू हम दोनों में गोलगप्पे खाने का कॉम्पटिशन होता था और हमेशा मैं ही जीतता था. चल, आज फिर से हो जाए!” ये कहते ही पिताजी टूट पड़े खाने के लिए! इस से पहले की हम कुछ कर पाते सूपर तीखे पानी की कटोरी में गोलगप्पे ने अंगड़ाई तोड़ते हुए डुबकी लगाई और फिर सीधे लैंड किया पिताजी के मुँह में! 
आँखों से अश्रु धारा, नाक से पानी और मुँह से धुआँ - एक मिनिट को तो लगा हमारे पिताजी नहीं कोई आग उगलता हुआ चायनीज़ ड्रैगन है! बस लम्बी पूँछ पटकनी बाक़ी है! 
आप मुझे ग़लत ना समझे मैं तो बस आँखों देखा हाल बता रहा था. पिताजी की ऐसी हालत देख मदन चाचा और झरना मौसी के हाथ मानो फ़्रीज़ हो गए और दोनों पिताजी को देखने लगे. बन्नो बुआ के हाथ का गोलगप्पा मुँह तक पहुँचा ही था पर उसने वहीं से रिवर्स टर्न ले अपनी लाने चेंज कर ली.

“ शगुन, पानी ले कर जल्दी आ!” दादी ने आवाज़ दी. इधर पिताजी - उधर हम समझ नहीं आया की क्या करे. किस तरह इस सिचूएशन से बाहर निकले. “ अच्छा हुआ झरना जीजी हमने गोलगप्पे नहीं खाये वरना कितनी बुरी हालत हो जाती. हमारा मुँह तो जलने से बच गया. ” बन्नो बुआ बोली.
मुँह में लगी हुई आग की तपिश थोड़ी कम होते ही पिताजी ने माँ को बोला, “ शगुन आज क्या मिर्ची मुफ़्त में आयी थी, जो इतनी सारी उड़ेल डाली?” इससे पहले की माँ कुछ कहती दादी बोल पड़ी, “ श्यामसुंदर, इस को कुछ मत बोल, मैंने ख़ुद पानी चखा था कोई तीखा ना था- बिलकुल बराबर था.” हम कोने में खड़े हो कर चुपचाप सारा फ़ैमिली ड्रामा देख रहे थे- सास बहू
की स्पेशल लविंग स्टोरी! 
“ छोड़ो भैया आज गोलगप्पे नसीब में नहीं थे पर कोई ना गर्मागर्म टिक्की और कचौरी ही सही. भाभी अगली बार आएँगे तो ज़रूर खायेंगे.” मदन चाचा बोले.

 हेलो! इक्स्क्यूज़ में !! आप फिर से टपकने वाले हो- इतनी मुश्किल से अभी भगाने का तरीक़ा ढूँढा था, फिर दिमाग़ की कसरत करवाओगे! ये बातें मन की मन में ही घूम रही थी इतने में दादी ने सबको हड़काया, “ चलो खाना ठंडा हो रहा है, शगुन के पीछे पड़ना छोड़ो और खाने के लिए चलो
दादी की बात मानो पत्थर की लकीर, कोई भी उनकी बात का विद्रोह नहीं कर सकता था.सब खाने में लिए टेबल पर पहुँच गए.

माँ बेचारी! सोच में पड़ गयीं की उनसे इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी.जैसे - तैसे खाना निबट गया और मेहमान अपने घर चले गए. हम लोग अपने कमरे आकर बैठ कर अपना होम्वर्क करने लगे पर मन में यह बात चुभ रही थी आज हमारी बदमाशी की वजह से माँ को फ़ालतू में ही सुनना पड़ा. तभी माँ अंदर आयी और बोली, “ अच्छा सच बताना की ये किस का काम था? मैं तुमको  नहीं डाँटूँगी पर मुझे से झूठ मत बोलना .” 

माँ का इतना कहना था कि हमारी आँखें भर आयीं और गला रुंध गया. 
“ सच में माँ हम तो सिर्फ़ चाचा -चाची और झरना मौसी को भगाना चाहते थे. सुबह से आप कितना काम कर रहीं थी. हमें क्या मालूम तीखा पानी पिताजी  ले लेंगे. हमारी वजह से आपको डाँट पड़ी. सॉरी माँ. वी लव यू.” ये कह कर हम माँ से लिपट गए .
सच जानिये ग़लती ऐक्सेप्ट कर के कितना हल्का फ़ील हो रहा था.
माँ ने हमारे आँसू पोंछे और हंसते हुए बोली, “ कोई बात नहीं. आगे से कुछ भी बदमाशी प्लान करो तो मुझे भी उसका हिस्सा बना लेना, खूब मज़ा आएगा. फिर से बचपन की यादें ताज़ा हो जाएँगी.”
“ और हाँ मुझे भी मत भूलना. मैं भी अपने जमाने का बदमाशियों का चैम्पीयन हूँ !” पीछे से पिताजी की भारी आवाज़ माँ की आवाज़ के साथ मिल गयी.

बरसात का वो दिन एक यादगार दिन बन गया और हमारी यादों की अल्बम का हिस्सा बन गया.

1 comment:

  1. Enjoyed it a lot. Childhood are the best days of life.

    ReplyDelete

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...