Tuesday, September 26, 2017

रज़ाई

दिसम्बर का महीना और ख़ूब कड़ाके की ठंड पड़ रही थी।उस शाम ठंड कुछ ज़्यादा ही थी और तेज़ हवाएँ चल रही थी. कोहरा छाया हुआ था और हर कोई बस जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहता था. सड़क किनारे गरमागरम हलवा, मूँगफली, शकरकंदी, उबले अंडे,चाऊमीन और आलू की टिक्की बेचने वाले भी फटाफट अपनी दुकान बढ़ाने में लगे हुए थे। ऐसा जान पड़ता था मानो आज ही सारी सर्दियों की ठंड पड़ लेगी।अब क्या बताएँ जनाब,लोगों को अंधेरे से कम पर ज़्यादा ठंड से डर लग रहा था!

हमें भी उस दिन माँ ने गली में खेलने जाने नहीं दिया। स्कूल से आकर बस घर में ही क़ैद हो गये थे हम। सारे बच्चे घर में ही ख़ूब धमा चौकड़ी मचा रहे थे। हमने घर में बहुत उत्पात मचाया हुआ था।कितनी बार तो छोटी बुआ हमें डाँट कर गयी, "बिना मोजों के घूम रहे हो। तुम्हारी टोपी और मफ़्लर कहाँ है?" पर, भैया!हम तो ठहरे अपनी मर्ज़ी के मालिक-कैसे सुनते किसी की! ख़ुराफ़ात में तो हमने डॉक्टरेट करी हुई थी।


अब मैं आपको उसके बारे में भी बता दूँ- आज तो उसका हमारे साथ होना बहुत ही ज़रूरी था। माँ की विशेष हिदायत थी की जब हम सब बैठें तो उसे साथ ज़रूर लें!यह जानते हुए कि वो हमारे पास कुछ ही महीने की मेहमान है- पर ना जी ना,इतनी ठंड में भी हम अपनी मर्ज़ी चलाना चाहते थे। 

हमें लगा की हमें उसकी ज़रूरत नहीं है पर यह तो हमारी ग़लतफ़हमी थी. हमें उसका साथ बहुत अच्छा लगता था- वो सर्दियों की धूप में भी होती थी और रात को भी। उसके बिना हम बच्चों को अच्छी नींद ही नहीं आती थी.माँ आकर प्यार से हमें उसके साथ सुलाती तो बहुत अच्छा लगता था। फिर माँ के जाते ही हम शैतानी शुरू कर देते! सारी सर्दियाँ वो हमारे साथ ही गुज़ारती और अपनी गरमाहट से सबको ख़ुश रखती.माँ के हाथ और ढेर सारे प्यार से बनी हुई वो बड़े-बड़े फूलों वाली रज़ाई-आज भी उसकी गरमाहट भूली नहीं है!

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