Tuesday, October 24, 2017

दिलों के तार

वैसे तो ऐसा रोज़ रोज़ नहीं होता था पर जिस दिन होता था उस दिन तो हम सारे कितने ज़्यादा ख़ुश हो जाते थे। हम ही क्या गली-मोहल्ले के सारे बच्चे मानो ख़ुशी से झूम उठते थे।अब ऐसा अवसर रोज़ ही थोड़े आता था कि माँ कहे, "बंद करो ये किताबें और जाओ जाकर बाहर खेलो!" आप भी चकरा गए ना! पर हमारे साथ ऐसा सिर्फ़ उस दिन ही होता था। वैसे तो हमारे कानों पर जूँ भी ना रेंगती थी पर जैसे ही माँ की आवाज़ सुनते तुरंत अच्छे बच्चों की तरह अपनी कापी-किताबें समेट कर अंदर रख देते थे।चेहरे से इतनी मासूमियत टपकती की नन्हें- मुन्ने फ़रिश्ते से जान पड़ते थे।बिलकुल गीता प्रेस की पुस्तकों के अच्छे बालकों जैसे!

जैसे घर की दहलीज़ पर पाँव रखते, वैसे ही बन्नो बस आवाज़ लगाती,"ऐ बंटू, कहाँ जा रहा है? अब जाते-जाते मेरा एक काम कर जा, मुझे ज़रा एक गिलास बरफ़वाला पानी दे जा !" बुआ को भी चैन नहीं है, घर से निकलते हुए टोकना बहुत ज़रूरी है।बिजली की फुर्ती से पानी पकड़ा कर ऐसे भागते की पीछे मुड़ कर भी ना देखते। बुआ का क्या भरोसा, शायद दो -चार और काम बता दे!

जैसे ही गली में एंट्री मारते, पता चलता सारे के सारे बच्चे वहीं जमा हैं और अलग- अलग खेल खेलने की योजना बना रहे हैं। हम फ़टाक से पहुँच जाते ताकि हम अच्छे खिलाड़ियों वाली टीम में शामिल हो सकते।अब फिसड्डी टीम में कौन होना चाहता है- जहाँ सब के सब ढोपरशंख जमा हो। बढ़िया टीम होगी तो हर खेल में बाज़ी मार सकते हैं -फिर चाहे खो -खो,मारम -पिट्टी,पिट्ठू ,लुका-छिपी या ऊँच-नीच का खेल ही क्यों ना हो।टीम तो सॉलिड ही होनी चाहिए बॉस, वरना मज़ा नहीं आता है! यहाँ हम अपनी जुगलबंदी में लगे होते वहाँ सब बड़े धीरे-धीरे घर से बाहर निकल कर एक दूसरे से बातें कर रहें होते।यह समय एकदम पर्फ़ेक्ट होता सभी आंटियों के लिए- अपनी सास की बुराई करने का, एक-दूसरे से रेसिपी माँगने का, नई फ़िल्म की कहानी जानने का और मोहल्ले की गॉसिप सुनने और करने का।अब हर दिन थोड़ी ही इतनी फ़ुर्सत होती है जब मानो ज़िंदगी थम सी जाए और सब धीमी गति से चले।

यह सब उस दिन,नहीं-नहीं उस शाम को होता था जब पूरे मोहल्ले की बत्ती चली जाती थी वो भी बिन बताए! आएगी कब वो तो सिर्फ़ विद्युत विभाग को ही मालूम होता था।पर इस बात से किसे फ़र्क़ पड़ता था - पूरा मोहल्ला एक बड़ा सा परिवार जैसे था।कहीं बातें, कहीं क़िस्से, कहीं कहानियाँ,कहीं बुराइयाँ, कहीं हँसी, कहीं रूठना और मनाना सब साथ-साथ चलता था। वो मिलजुल कर बैठना, वो अनगिनत चाय की प्यालियों के साथ देश की राजनीति पर चर्चा करना, वो शर्माजी के घर से आए गर्मागर्म समोसे उड़ाना, वो बबली चाची के हाथ के बने दही-भल्लों के साथ गॉसिप की चटनी परोसना।

तब बिजली के तारों से ज़्यादा दिल आपस में जुड़े हुए थे और आज, बिजली के तार तो जुड़ गए हैं पर दिलों की दूरियाँ बढ़ गयी हैं।

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