Sunday, October 29, 2017

छुट्टियों का मतलब

वो गरमियों के लम्बे-लम्बे दिन वैसे तो बहुत भारी लगते थे पर जब हम सब साथ होते तो उतने ही मज़ेदार भी हो जाते थे।कितनी बेसब्री से हम पंद्रह मई का इंतज़ार करते थे- क्योंकि वो हमारी गरमियों की छुट्टियों का सबसे पहला दिन होता था।हमारी प्लानिंग होती की ख़ूब देर तक सोएँगे और आराम से दोपहर तक उठेंगे, पर यही हमारी सबसे बड़ी भूल भी होती।सुबह-सुबह दादी की आवाज़ कानों की शांति भंग कर देती,"कंबख़्तों दिन भर सोते रहोगे क्या ? छुट्टियों का मतलब यह नहीं की सारे दिन बिस्तर तोड़ते रहो, जाओ जल्दी से नहाने जाओ वरना पानी चला जाएगा !"

अब दादी को कौन समझाए की छुट्टियों का मतलब है देर से उठना, आराम से नहाना, अपनी मनपसंद चीज़ें खाना, खेलना और ख़ूब मौज -मस्ती करना।एक तरफ़ दादी और दूसरी तरफ़ बन्नो बुआ! हमें घर पर देखते ही उनके सभी कामों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त तैयार हो जाती।"तू कम्मो के घर जाकर नई फ़िल्मी दुनिया ले आ और आते आते शगुन के यहाँ से उसका लाल दुपट्टा ले आना, भूलना मत।" अब बुआ से कौन मगजमारी करे, इससे पहले के वो कोई और काम बताए हम चुपचाप वहाँ से निकल लेते।


तैयार हो कर हम गली में निकलते तो वहाँ कोई नहीं दिखता- होता भी कैसे! एक सिर्फ़ हम ही है जिनके घर में उन्हें सुबह देर तक सोने नहीं दिया जाता है, बाक़ी तो बारह बजे से पहले सो कर उठते भी नहीं। ख़ुद पर कितना तरस आता था पर क्या करे- रहना भी तो इसी घर में था। थोड़ी देर धूप में धक्के खा कर आते तो वहाँ से माँ की आवाज़ आती, "छुट्टियाँ शुरू हो गयी और शुरू हो गयी इनकी आवारागर्दी।बस दिन चढ़ते ही गली में घूमना चालू कर दिया।इतना भी नहीं होता की माँ की कोई मदद कर दें ।"

हे भगवान यह गरमियों की छुट्टियाँ तो हमारे जी का जंजाल हो गयीं हैं जिसे देखो वो ही पेनल्टी कॉर्नर से फ़्री किक मार रहा है।

ग़लती से यदि हम रसोई में दाख़िल हो गए फिर तो जैसे माँ के रडार पर आ गए। एक बार दुश्मन जहाज़ भी बच कर निकल सकता है पर माँ की तेज़ निगाहों से बचना, नामुमकिन।"अब समझ आया की पानी की बोतलें कौन ख़ाली रख कर भाग जाता है।और वो फ़्रीज़र में से किसने बर्फ़ निकाली थी? ट्रे में पानी तो मेरी माँ भर कर रखेगी ना। तुम तो सारे दिन बस ऊधमबाज़ी किया करो।" पानी पीना भी एक दंडनीय अपराध हो जाता था।लेकिन हम कौन से कुछ कम थे, जब मौक़ा मिलता पानी के बजाय चुपके से रसना या ऑरेंज स्क्वॉश पी कर भाग जाते- पर हम सारी कारस्तानी पकड़ी जाती। जब जगह-जगह टपके हुए स्क्वॉश पर चींटियों की लाइन मार्च पास्ट कर रही होती तो उसके बाद होता हमारा कोर्ट मार्शल!

दिन की दिक़्क़तों को झेलते हुए शाम तक पहुँचते तो पिताजी से सामना जाता।"सारे दिन ख़ूब मस्ती करी होगी, अब जाओ थोड़ी पढ़ाई कर लो। छुट्टियों का मतलब ये नहीं की किताबों को हाथ ही मत लगाओ, वरना स्कूल खुलते ही इम्तिहान में फ़ेल हो जाओगे।"

हम तो पूरी गर्मियाँ यह समझते रह जाते की सही मायने में छुट्टियाँ कहते किसी हैं!

No comments:

Post a Comment

तेल का तमाशा

चोटियों को माँ इतना कस कर बांधती थी मानो उनकी मदद से मैंने पहाड़ चढ़ने हो- तेल से चमकती और महकती हुई इन चोटियों को काले रिबन से सजाया जाता औ...